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________________ १२० महोपाध्याय समयसुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व महोपाध्याय विनयसागर ने 'सारस्वत - वृत्ति' की प्रामाणिकता बताने के लिये प्रस्तुत ग्रन्थ जो उद्धरण लिया है, उससे स्पष्ट हो जाता है कि समयसुन्दर ने 'सारस्वतीय शब्दरूपावली' नामक ग्रन्थ का प्रणयन किया था सारस्वतस्य रूपाणि, पूर्व वृत्तेरलीलिखत् । स्तम्भतीर्थे मधौ मासे, गणि-‍ - समयसुन्दरः ॥ विशेष पुष्टि तो मूल पाण्डुलिपि देखने पर ही की जा सकती है। १.२० तृणाष्टकम् प्रस्तुत अष्टक का रचना - काल अनिर्दिष्ट है । इसमें तृण की विभिन्न प्रकार की लोकोपयोगिता को ध्यान में रखकर उसकी प्रशंसा की है और उसका माहात्म्य बताया है । उदाहरण स्वरूप - - - कृते पंचामृते भोज्ये ताम्बूले भक्षिते तृण । वक्त्रशुद्धिकरन्तत्त्वं वरांगस्थिति तन्महत् ॥५॥ तृणशक्तिर होदर्भ-तृणझाटेन मन्त्रतः । दुष्टस्फोटक भूतादिदोषा यांति यतः क्षयम् ॥७॥ छाया सद्मोपरिस्थस्त्वं दंतस्थं युधि जीवनम् । गो- जग्ध-मसि - दुग्धं तदुपकारि महत् तृण ॥८ ॥ यह अष्टक 'समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि' में संग्रहीत है । १.२१ रजाष्टकम् इसमें रज की आत्म कथा निबद्ध है । इसमें कवि ने रज को क्षमाशील, बच्चों के शृंगार का साधन, वशीकरण का साधन, अनायास सुलभ इत्यादि गुणों से युक्त माना है; जैसे सर्व सहा प्रश्रूतित्त्वात्मर्द्यमानं पदैरधः । न कुप्यसि कदापि त्वं रजस्ते क्षांतिरुत्तमा ॥४ ॥ रथ्यासु रममाणानां शिशूनां पांसुशालिनाम् । धूले त्वं स महर्ध्यापि शृङ्गारादतिरिच्यसे ॥७ ॥ प्रस्तुत अष्टक में ८ पद्य हैं। इसका रचना-समय अज्ञात है। यह अष्टक 'समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि' में मुद्रित है । १.२२ उद्गच्छसूर्यबिम्बाष्टकम् प्रस्तुत अष्टक में उदीयमान सूर्यमण्डल का कवि ने विविध कल्पनाओं द्वारा रोचक वर्णन किया है । कवि की जिस कल्पना में प्राची दिशा कभी एक कामिनी है, जिसके विशाल ललाट पर सूर्य तिलक के समान है; कभी हाथ में लाल गेंद लिए एक १. उद्धृत - समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि, महोपाध्याय समयसुन्दर, पृष्ठ ५० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012071
Book TitleMahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabh
PublisherJain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
Publication Year
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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