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________________ जैन दर्शन में रंगों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण 377 २. भाव लेश्या - अर्थात् जीव के कषाय अनुरंजित भाव जो असंख्य बार परिवर्तनीय हैं। जैन मतानुसार प्रत्येक जीव के मन, वचन और काया ही कर्मों के आश्रव के कारण हैं। शुभभावों से शुभ कर्म और अशुभ भावों से अशुभ कर्मों का बंघ होता है, यही भाव लेश्या है जो जीवों के भावानुकूल आचरणों जैसे- क्रोध, हिंसा, दया, करूणा, परोपकार आदि में परिलक्षित होती है। पाप-पुण्य को आमंत्रित करने वाले भावों की भिन्नता का लेश्याओं के माध्यम से सहजता से जाना जा सकता है। जैनाचार्यों की विचारणा है कि लेश्याओं का रंग के साथ गहरा संबंध होता है। कषाय और योग से अनुरंजित होकर जो कर्म-परमाणु बंधन को प्राप्त होते हैं उन पुद्गल - परमाणुओं का भी अपना स्पर्श, रस, गंध व रंग होता है। प्रत्येक पुद्गल परमाणु में चार स्पर्श-स्निग्ध, रूक्ष, शीत व ऊष्ण में से कोई दो रूप पाये जाते हैं। वहीं खट्टा मीठा, कड़वा तथा कसैला में से कोई एक रस पाया जाता है। सुगंध व दुर्गंध में से कोई एक गंध तथा काला, पीला, लाल, सफेद और नीले रंगों में से कोई एक रंग पाया जाता है। रंगचयन में चिद्वृत्ति की महत्वपूर्ण भूमिका को देखते हुए जैन दर्शन में मनोभावों या मन के परिणामों का विश्लेषण रंगों के आधार पर करता है और उन्हें छः भागों में विभक्त कर षट्लेश्या के रूप में विवेचित करता । क्रमशः कृष्ण, नील व कपोत को अशुभ और पीत, पद्म व शुक्ल को शुभ लेश्या मानकर आत्मा के परिमार्जन का एक सशक्त माध्यम सिद्ध करता है । षट्लेश्या का परिचय इस प्रकार है१. कृष्ण लेश्या इस लेश्या का रंग काला माना गया है। यह जीवन को भोगों और पतन की ओर ले जाने वाली लेश्या है। इस अशुभ श्या का रस कड़वा (नीम से भी अनंतगुणा) माना गया है। यह शोक व दुखः का सूचक है। यह सभी रंगों को ढँक लेने वाली है। मृत्यु के देवता यम तथा उनके वाहन का रंग काला होता है। कौवा, साँप का रंग काला और गुण्डे, डाकू आदि का प्रिय रंग काला होता है जो अशुभ माना जाता है। कृष्ण लेश्या से युक्त व्यक्तियों के लक्षण निम्नानुसार विवेचित किए गये हैं आर्त रौद्रः सदा क्रोधी, मत्सरो, धर्म वर्जितः । निर्दयी, बैर संयुक्तों कृष्ण लेश्यायुतो नरः ।। अर्थात् अत्याधिक क्रोधी, द्वेषी, निर्दयी, धर्म से दूर भागने वाले, दूसरों से बैर रखने वाल, हिंसक, क्रूर, परपीड़ा में आनंद पाने वाले, भोगी व श्रृंगारी कृष्ण लेश्या से युक्त मानव हैं। २. नील लेश्या इस लेश्या के संबंध में आचार्यों ने कहा है कि आलस्यो मंदबुद्धिश्च स्त्री लुब्धश्च प्रवंचकः । कातरश्च सदा मानी नील युतो नरः ।। यह लेश्या कृष्ण लेश्या से कुछ बेहतर है जो कृष्णपन को कुछ हल्का करती है। इसमें स्वार्थ, बैर, द्वेष का रंग कुछ हल्का हो जाता है। कृष्ण लेश्या के काले रंग पर कोई दूसरा रंग नहीं चढ़ता पर नील लेश्या को भय या दण्ड से पापकर्म से कुछ दूर किया जा सकता है। इस लेश्या के लक्षण आलस्य, भीरुता, मंदबुद्धि, स्त्रीलुब्धता, स्वार्थपरकता तथा प्रवंचकता हैं। इस लेश्या का रस चरपरा (पीपल आदि के रस से अनंतगुणा ) होता है। ३. कपोत लेश्या इस लेश्या को कबूतर के गले व कंठ के समान रंग वाली माना गया है जो नीले रंग से कुछ हल्की होती है, यानि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012067
Book TitleSumati Jnana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivkant Dwivedi, Navneet Jain
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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