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________________ जैन दर्शन में रंगों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण डॉ. (श्रीमती) साधना जैन विविधता से युक्त इस जगत में किसी व्यक्ति को आकाश का नीलापन सुखद लगता है तो किसी का धरा का धूसरपन, किसी को आकाश में छाये बादलों की कालिमा पसंद है तो किसी को बादलों में से झांकते सूरज का सुनहरापन, किसी को वृक्षों की पत्तियों का हरापन पसंद है तो किसी को उनके बीच टँके लाल फूल, किसी को बाग में खिले सूरजमुखी की पीत आभा अच्छी लगती है तो किसी को रातरानी की शुभ्र धवलता । मनोयोगों की इस भिन्नता के रहस्य का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण कर मनोविदों ने स्पष्ट मत दिया है कि प्राथमिक रंग का चयन मनुष्य की अन्तः वृत्ति का परिचायक होता है। रंग विशेष की पसंद-नापसंद से उसके अन्तःकरण की स्पष्ट तस्वीर देखी जा सकती है और इस पूरे रंग प्रकरण में मनुष्य की चिवृत्ति की महती भूमिका होती है। ५७ आध्यात्मिक संस्कृति के प्रणेताओं ने मानव-मन की चिवृत्तियों का वैज्ञानिक विश्लेषण कर स्वतंत्र मापदंड प्रस्तुत किए हैं। विचारकों ने मनोयोगों की भिन्नता के लिए संस्कारों को प्रमुख माना तो आध्यात्मिक आचार्यों ने कर्म को माना गया कि संसार का प्रत्येक जीव कषाय और योग से संप्रक्त होकर विभिन्न प्रकार के कर्मों से युक्त होकर भिन्न-भिन्न संस्कारों से घिरता है । तपोभूत, परमसाधक जैनाचार्यों ने मनोविदों व मनोवैज्ञानिकों के तथ्यों से भी आगे जाकर चिद्वृत्तियों का अत्यन्त सूक्ष्म व वैज्ञानिक विश्लेषण कर मानव मन की सूक्ष्म वृत्तियों से मन की रंग संवेदनाओं और चिदवृत्तियों की संवेदनात्मक प्रतिक्रिया को व्याख्यापित किया तथा जैन सिद्धांत ग्रंथों में कषाय और योग के द्वयात्मक कार्य- लेश्या के नाम से अभिहित किया गया । लेश्या से तात्पर्य है चित्र में उठने वाली सूक्ष्मतम संकल्प - विकल्प चेतना से उत्पन्न भावतरंग। दूसरे शब्दों में कहें तो कषाय से अनुरंजित आत्मा के परिणाम या जो आत्मा को पुण्यपाप में लपेटे वही लेश्या है। विभिन्न धर्मों के चिंतकों, विचारकों व दार्शनिकों ने लेश्या को अलग-अलग नाम दिए हैं। पतंजलि ने इसे चिवृत्ति कहा, ईसा मसीह ने Dark night of Soul कहा तो विज्ञान ने अपने अंतरंग में मन की अत्यन्त भीतरी आंतरिक अवस्था में होने वाले सूक्ष्म चिंतन से उठने वाली प्रभा यानि 'आभामंडल' कहा, तो भगवान महावीर ने सूक्ष्मतम् विचार तरंगों को लेश्या कहा । जैन दर्शन में कर्म सिद्धांतानुसार कर्म व प्रवृत्ति के कार्यकारण भाव को दृष्टिगत रखते हुए पुद्गल परमाणुओं के पिंड-रूप को द्रव्य कर्म व रागद्वेषादि रूप प्रवृत्तियों को भावकर्म कहा गया । वस्तुतः जीवन की विषमताओं के जनक यही भावकर्म - लेश्या हैं। जैनमत में लेश्या के दो भेद हैं १. द्रव्य लेश्या - अर्थात् पुद्गल परमाणुओं का दृश्य आकार जो जीवन पर्यन्त अपरिवर्तनीय है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012067
Book TitleSumati Jnana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivkant Dwivedi, Navneet Jain
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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