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________________ 368 Sumati-Jñāna चरणों की नित्य दिन वंदना करता था ।" स्थानांग में भी पुत्र द्वारा माता-पिता को शतपाक और सहस्रपाक तेल तथा सुगन्धित उबटन से अभ्यंजित करने, उन्हें अपने स्कन्ध पर धारण करके चलने आदि सम्मान का उल्लेख हुआ है। जैन पुराणों में भी अन्य धर्मों की भांति पुत्र जन्मना माता को अत्यधिक श्रद्धा तथा विशिष्ट स्थान प्रदान किया गया है। संसार में माताओं को सर्वश्रेष्ठ बन्धु बताते हुए इन्द्र की पत्नि का कथन है कि हे माता ! तू तीनों लोकों की कल्याणकारिणी माता है, तू ही मंगलकारिणी है, तू ही महादेवी है, तू ही पुण्यवर्त्ता है और तू ही यशस्विनी है । महापुराण में पुत्र जन्म को हर्ष का कारण माना है, एक अन्य स्थान पर कन्या उत्पन्न होने पर शोक छा जाने का वर्णन है। वन्ध्या (निन्द) स्त्री को समाज में सम्मान प्राप्त नहीं था । सन्तान प्राप्ति के लिए वे इन्द्र, स्कंद, नाग, यक्ष आदि अनेक देवी-देवताओं की पूजा-उपासना करती रहती थीं, उन्हें प्रसाद चढ़ाती थीं और उनका जीर्णोद्धार कराने का वचन देती । वहीं गर्भिणी स्त्री के प्रति सम्मान, विविध मनोविनोद, क्रीड़ाओं से खुश रखने का उल्लेख मिलता है। जैनाचार्यों ने माताओं के पुत्र - प्रेम को पति - प्रेम से अधिक उच्च स्थान प्रदान किया है। पद्मपुराण में उल्लेख कि संसार में माता को पुत्र वियोग से बढ़कर कोई अन्य वियोग नहीं होता है। ऋषभदेव की जन्म महिमा, महावीर के जन्म महोत्सव, पार्श्वनाथ के जन्म महोत्सव, धारणी देवी से उत्पन्न सुकुमार मेघकुमार के जन्म महोत्सव इतिहास में उल्लेखनीय हैं।" जैन सूत्रों में उल्लेख है कि माताएँ अरहत या चक्रवर्ती आदि के गर्भधारण करने के पूर्व कुछ स्वप्न देखती थीं। जब महावीर गर्भ में अवतरित हुए तो उनकी माता ने स्वप्न में १४ पदार्थ देखे यथा - गज, वृषभ, सिंह, अभिषेक, माला, चन्द्रमा, सूर्य, ध्वजा, कुंभ, कमलों का सरोवर, सागर, विमान भवन, रत्नराशि और अग्नि । अन्य धर्मों की भांति जैनधर्म में कन्या का सम्मान पुत्रों की अपेक्षा कुछ कम दिखाई देता है, लेकिन जहाँ उनके जन्म को महत्व नहीं दिया, वहीं उन्हें पुत्रों की भांति महत्व भी प्रदान किया गया है। महापुराण तथा पद्मपुराण में कन्या जन्म माता-पिता के लिए अभिशाप न होकर प्रीति का कारण बताया गया है। माता-पिता कन्याओं का लालन-पालन एवं शिक्षा-दीक्षा पुत्रों के समान ही किया करते थे, कन्या रत्न से श्रेष्ठ कोई रत्न नहीं है। " शील सम्पन्न कन्या को दस पुत्रों के समान माना गया है। लड़कियाँ गणित, वाङ्मय, व्याकरण, छन्द - अलंकार शास्त्र आदि समस्त विधाएँ और कलाएँ गुरू या पिता के अनुग्रह से प्राप्त करती थीं। जैन सूत्रों में कन्या के तीन प्रकार के विवाहों का उल्लेख मिलता है। वर और कन्या दोनों पक्षों के माता-पिताओं द्वारा आयोजित विवाह, स्वयंवर विवाह और गांधर्व विवाह । बौद्ध जातकों की भांति जैन आगमों में भी समान स्थिति एवं समान व्यवसाय वाले लोगों के साथ विवाह सम्बन्ध स्थापित कर अपने वंश को शुद्ध रखने का प्रयत्न किया गया है जिससे विभिन्न जातिगत तत्वों के सम्मिश्रण से कुल की प्रतिष्ठा न भंग हो । सामान्यतया वर के माता-पिता समान कुल परिवार से ही कन्या ग्रहण करते थे। मेघकुमार ने समान वय, समान रूप समान गुण और समान राजोचित पद वाली आठ राजकुमारियों से पाणिग्रहण किया था। लेकिन समाज में कुछ अपवाद भी मिलते हैं, उदाहरणार्थ - राजमंत्री तेयलिपुत्र ने एक सुनार कन्या से क्षत्रिय राज सुकुमाल ने ब्राह्मण कन्या से, राजा जितशत्रु ने चित्रकार की कन्या से तथा राजकुमार ब्रह्मदत्त ने ब्राह्मण और वणिकों की कन्याओं से पणिग्रहण किया। इसी तरह वीतिमय का राजा उदायण तापसों का भक्त था और उसकी रानी प्रभावती श्रमणोपासिका थी । श्रमाणोपासिका सुभद्रा का विवाह किसी बौद्ध धर्मानुयायी के साथ हुआ था। जैन आगम साहित्य में नारी के स्वयंवर प्रथा के अनेक उदाहरण मिलते हैं, जिसमें द्रोपदी, निर्वृत्ति (जितशत्रु की पुत्री) तथा गन्धर्व विवाह में तारा उल्लेखनीय हैं। जैन पुराणों में भी कन्या के विविध विवाहों का उल्लेख है। कुलीन कन्या पति का स्वयं वरण नहीं करती बल्कि पिता की आज्ञानुसार चलती थीं। लेकिन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012067
Book TitleSumati Jnana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivkant Dwivedi, Navneet Jain
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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