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________________ 367 जैन धर्म में गृहस्थ नारीः एक ऐतिहासिक अध्ययन पूर्व मध्यकालीन जैन पुराणों में भी स्त्रियों की गिरी हुई दशा का वर्णन है। जैनेत्तर प्रचलित मान्यतानुसार स्त्रियाँ नैतिक और आध्यात्मिक पतन का कारण मानी गई हैं। इनका उपनयन बन्द करने से उनकी स्थिति दिन-प्रतिदिन गिरती गई। महापुराण" के अनुसार स्त्रियों की स्थिति इतनी गिर गयी थी कि उन्हें महत्त्वपूर्ण कार्यों से पृथक रखा जाता था। पद्मपुराण में उल्लेख है कि पत्नी को पति के अधीन परतन्त्र रखा जाता था जिससे वे पति की इच्छा के विपरीत कोई कार्य नहीं कर सकती थी। यही कारण है कि महापुराण में स्त्रियों को मोक्ष का अधिकारी नहीं माना गया। महापुराण' में जैनाचार्यों ने स्त्रियों के सूक्ष्मदुर्गुणों का विश्लेषण करते हुए कहा है कि स्त्रियाँ कुलीनता, अवस्था, रूप, विद्या-चरित्र, वंश, लक्ष्मीप्रभुता, पराक्रम, कान्ति, इहलोक, प्रीति-अप्रीति, ग्राह्य, अग्राह्य, दया, लज्जा, हानि, वृद्धि, गुण और दोष कुछ भी नहीं गिनतीं। स्त्रियाँ प्रकृत्ति से भीरू, कुटिल, लालची, मायाचारी, चंचल स्वभाव वाली कपटी, क्रोधी होती हैं, उनका चित्त परपुरूष पर लगा रहता है।" पाण्डवपुराण के अनुसार स्त्रियाँ अपने कुल को गिराती हैं। इस प्रकार उनके दुर्गुणों का उल्लेख तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था के अंतर्गत दिखाई देता है। दूसरी विचारधारा के अंतर्गत कुछ जैन साहित्य नारियों की उन्नतिशील अवस्था का चित्रण करते हैं। तांत्रिक प्रभाव के कारण नारी देवी शक्ति की स्रोत मानी गई। इस प्रकार की नारियाँ पतिव्रत धारण करती हुई प्रेम और आनन्दपूर्वक जीवन यापन करती थीं। तीर्थकर आदि शलाकापुरूषों को जन्म देने वाली स्त्रियाँ ही थीं। ऐसी अनेक तत्कालीन स्त्रियों के उल्लेख मिलते हैं जो गतपतिका, मृतपतिका, बालविधवा, परित्यक्ता, मातृ रक्षिता, पितृ रक्षिता, भातृ रक्षिता, कुलगृहरक्षिता और श्वसुर कुल रक्षिता हैं, नख और केश जिनके बढ़ गये हैं, स्नान न करने के कारण स्वेद आदि से परितप्त हैं, दूध-घी-मक्खन-तेल-गुड़ नामक मद्य-मांस-मधु का जिन्होनें त्याग कर दिया है तथा जिनकी इच्छा अत्यन्त अल्प है फिर भी वे किसी उपपति की ओर मुंह उठाकर नहीं देखती। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति और उत्तराध्ययन टीका' में स्त्रियों को चक्रवर्ती के चौदह रत्नों में गिना गया है। मल्लिकुमारी ने स्त्री होकर भी तीर्थंकर की पदवी प्राप्त की थी। वृहतकल्पमाष्य" के अनुसार - जल, अग्नि, चोर, दुष्काल के संकट उपस्थित होने पर सर्वप्रथम स्त्री की रक्षा करनी चाहिए। राजीमती (मोजराज उकसेन की कन्या), चेल्लणा, सुभद्रा, ब्राह्मी, सुबुदी, चंदना, मृगावती, जयन्ती आदि नारियों की प्रशंसा की गई है। महापुराण में पतिव्रत, व्रतशील नारियों को पवित्र माना गया है, किन्तु स्त्रीहरण को सबसे बड़ा पाप। पद्मपुराण में तो परस्त्री को माता कहकर समाज ने आदर्श स्थापित किया है। हरिवंश पुराण" में जैनाचार्यों ने स्त्रियों के शोषण करने वालों के खिलाफ आवाज उठायी और ऐसे लोगों की निंदा भी की। इसलिए जैनाचार्यों ने कहा कि पिता, भ्राता, पुत्र को प्रत्येक अवस्था में संरक्षण प्रदान करना चाहिए। मनुस्मृति भी इसका समर्थन करता है। ब्राह्मण ग्रन्थों की भांति जैन ग्रन्थों ने भी स्त्रियों के सर्वप्रधान गुण पतिव्रत धर्म को ही माना, जिससे वे स्वर्ग की अधिकारिणी हो सकती हैं। शीलचारी स्त्रियों के महात्म्य की प्रशंसा की गयी है कि वे देवता से भी नहीं डरती हैं।" महापुराण में स्त्रियों के लज्जा, रूप, लावण्य, कान्ति, श्री धुति, मति और विभूति आदि गुणों का वर्णन उपलब्ध है। पति के कुरूप, बीमार, दरिद्र, दुष्ट, दुर्व्यवहारी होने पर भी पतिव्रता स्त्रियाँ चक्रवर्ती राजा से भी सम्बन्ध नहीं रखतीं। इस प्रकार जैन साहित्य में स्त्रियों के विभिन्न रूपों का विवेचन किया गया है। जैन कथाओं में माताओं के उदात्त प्रेम के उल्लेख मिलते हैं जहाँ उनके करूणा और प्रेममय चित्र उपस्थित किये गये हैं। ज्ञातृधर्मकथा तथा उत्तराध्ययन सूत्र में मेधकुमार की माता का उल्लेख है कि भगवान महावीर के उपदेश सुनकर जब मेघकुमार ने श्रमण दीक्षा स्वीकार की तो उसकी माता की आँखें डबडबा आयी और करूणाजनक स्थिति होने के कारण वह अचेत होकर लकड़ी के लठे की भांति गिर पड़ीं। इसके अलावा राजा पुस्यनन्दी अपनी माता के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012067
Book TitleSumati Jnana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivkant Dwivedi, Navneet Jain
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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