SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 339
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 314 Sumati-Jñāna अनुभूतियों से है, ऐसे श्रेष्ठ व मर्यादित आचार जिसे समाज ने प्रमाणित किया है कि यह उचित है एवं जो दूसरे प्राणी कोय या हानि न पहुचाए, वही आचार नैतिक हैं। जैन धर्म के सम्पूर्ण सिद्धांत व नियम नैतिक आचार हैं। जैन दर्शन में ज्ञान की अपेक्षा चारित्र को ही अंतिम महत्व स्वीकार किया गया है।" अहिंसा परमो धर्म, जियो और जीने दो, जीव मात्र में समत्व भाव, परस्परोग्रहो - जीवानाम, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, बह्मचर्य एवं अपरिग्रह पाँच व्रत, उनके अतिचार, दस धर्म, स्यादवाद एवं अनेकांतवाद से बढ़कर कोई नैतिक नियम नहीं हो सकते हैं। समाज में शांति व्यवस्था एवं समरसता लाने के लिए आत्मानुशासन की विशेष आवश्यकता है। वह अनुशासन उपरोक्त जैन सिद्धातों से ही संभव है। जैन धर्म का विस्तार जीवन शोधन और चरित्र वृद्धि के लिए हुआ है। जैन धर्म के सिद्धांत श्रेष्ठ नैतिक आदर्श प्रस्तुत करते हैं। जैन संस्कृति के नियम आत्मसात करने से नैतिक पतन की समस्या दूर होगी । परिवार व समाज में सद्भाव की समस्या आज की ज्वलंत समस्या है परिवार व समाज में पारस्परिक संबंधों में सामंजस्य का अभाव । आपसी संबंधों में मधुरता खत्म होती जा रही है फलस्वरूप परिवार प्रणाली एवं सामाजिक संस्थाएँ विखण्डित हो रही हैं। वैश्वीकरण तथा कथित आधुनिक प्रगति एवं वैश्विक संचार माध्यमों के कारण लोगों में व्यक्तिगत सोच प्रभावी हो रही है। अतः वैचारिक मतभेद ज्यादा उभर रहे हैं फलस्वरूप परिवार टूट भी रहे है । परस्पर संबंधों में व्याप्त तनाव निवारण के लिए अनेकान्तवाद व स्यादवाद् अत्यंत उपयोगी हैं। इसके अनुसार वस्तु अनंत धर्मात्मक है अर्थात् वस्तुतत्व या तथ्य स्वयं विरोधी द्वन्दों का अवरोधी क्रीड़ा स्थल है। इन समस्त विरोधी धर्मों को मिलकर रहने में कोई विरोध नहीं है। विरोध तो तब होता है जब व्यक्ति अपनी निजी दृष्टि का प्रयोग कर वस्तु व्यवस्था को संपादित करता है। सत्य के लिए बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है । अनेकान्त आत्मसम्मान करता है और साथ दूसरे के व्यक्तित्व को भी उतना ही सम्मान देता है। बातचीत से कठिन समस्या व विवाद भी सुलझ जाते हैं। बेहतर संवाद मधुर संबंध के आधार होते हैं। ऐसे ही संवाद की शैली है स्यादवाद, जिसमें वक्ता आपनी बात इस ढंग से कहता है कि उसका वह कथन अपने प्रतिपक्ष के कथनों का पूर्ण निषेधक न बने। अनेकान्त एवं स्यादवाद के सिद्धांत दार्शनिक, धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक एवं पारिवारिक जीवन के विरोधों के समन्वय की ऐसी विधायक दृष्टि प्रस्तुत करते हैं जिससे मानव जाति के संघर्षों के निराकरण में सहायता मिल सकती है। प्रमाणसागर जी ने लिखा है कि एकांत "ही" का प्रतीक है तो अनेकांत "भी' का। "ही" में आग्रह है "भी' में अपेक्षा है। "ही" में कलह है "भी" में समन्वय है । समता व समन्वय का इससे अच्छा उपाय अन्यत्र दुर्लभ है। आर्थिक समस्याएँ आर्थिक क्षेत्र की समस्याएँ वर्तमानकालिक समाज की ज्वलंत समस्या है। एक ओर अमीरों की संख्या बढ़ रही है तो दूसरी ओर गरीबी उससे भी तेज गति से बढ़ रही है। आर्थिक असमानता बढ़ती जा रही है। आर्थिक असमानता को मिटाने का अचूक उपाय है - अपरिग्रह । परिग्रह के सब साधन सामाजिक जीवन में कटुता, घृणा और शोषण को जन्म देते हैं। अपने पास उतना ही रखना जितना आवश्यक है, और उसमें भी ममत्व भाव नहीं रखना अपरिग्रही प्रवृत्ति है । वस्तुओं के प्रति ममत्व भाव रखना परिग्रह है।" मनुष्य की आवश्यकताएँ ज्यादा नहीं हैं। वे थोड़े से प्रयास से पूरी की जा सकती है लेकिन ममत्व भाव के कारण लोभ उत्पन्न होता है और लोभ के कारण वह धन कमाने के लिए दुराचार करने लगता है। अपरिग्रही प्रवृत्ति से आर्थिक व सामाजिक दुराचारों को रोका जा सकता है। प्रगति के दौर में आर्थिक समृद्धि आवश्यक है, साम्यवाद असफल हो चुका है अर्थात् अपरिग्रह ज्यादा व्यवहारिक बताया जाता हैं, लेकिन अपरिग्रह सिद्धांत से व्यक्ति व्यक्तिगत रूप से संतुष्ट रह सकता है साथ ही वह पारिवारिक व सामाजिक दृष्टि से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012067
Book TitleSumati Jnana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivkant Dwivedi, Navneet Jain
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy