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________________ समसामयिक समस्याओं के संदर्भ में प्राचीन जैन संस्कृति की प्रासंगिकता 313 चाहता, वस्तुतः वह अपूर्ण पर नहीं बल्कि वह पूर्णता की खोज में रहता है। इसके लिए अनेक विधियाँ विकसित हुई। समीक्षण ध्यान की प्रक्रिया उन्हीं विधियों में एक सुपरीक्षित सुपरिष्कृत विधि है। ध्यान साधन की इस प्रक्रिया में हम बाहर की दुनियाँ से अन्दर की दुनियाँ में प्रवेश करते हैं। बंधन से मुक्ति अथवा रोग से विराग की ओर बढ़ने की इस प्रक्रिया को समीक्षण ध्यान की संज्ञा दी गई है। जैनागम में आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल ध्यान का उल्लेख है। आर्त एवं रौद्र ध्यान अप्रशस्त है, धर्म एवं शुक्ल ध्यान प्रशस्त हैं। पवित्र विचारों एवं ज्ञान व कर्मफल के चिन्तन से मन का स्थिर होना धर्म ध्यान है। मन के अत्यंत निर्मलता होने पर जो एकाग्रता होती है, वह शुक्ल ध्यान है। इस एकाग्र मन को स्वस्थ दिशा देने की विधि है समीक्षण ध्यान विधि। समीक्षण साधना का मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण है कि मन को एक अधूरे नश्वर तत्व से दूसरे अनश्वर तत्व पर अविवेकपूर्वक बलात् खींच कर रोकने की दृढ़योग की साधना कभी सफल नहीं हो सकती, मन पूर्णता की तलाश करता पूर्णता पर ही संतोष होगा। महावीर ने मन के अज्ञात एवं अविवेकपूर्वक दमन पर नहीं, संभमन पर जोर दिया है। भगवती आराधना में कहा गया है कि इन्द्रियों के संयम न होने से ही समस्याएँ होती है और इन्द्रियों का नियंत्रक मन है। जैन धर्म में मन को वश में करने के लिए प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान तप का निर्देश है। फ्रायड ने भी अपने मनोवैज्ञानिक विश्लेषण में दमन से तनाव, संघर्ष एवं अन्तर्दन्द को उत्पन्न होना बताया है लेकिन उनका मनोविज्ञान अधूरा बताया जाता है स्वयं उनके शिष्य जुंग ने समर्थन नहीं किया। वस्तुतः अनुभव से यह स्पष्ट होता है कि मानसिक वृत्तियाँ सभी एक जैसी नहीं होती। कुछ वृत्तियों का एक सीमा तक दमन आवश्यक होता है। ध्यान, तप, स्वायाय एवं संयम से मानसिक वृत्तियों को नियंत्रित किया जा सकता है कतिपय मानसिक वृतियाँ नियंत्रित हो जाएँ तो मानसिक समस्या उत्पन्न ही नहीं होंगी। स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ यह एक समसामयिक समस्या है। इस समस्या के निदान में भी अहिंसा, इन्द्रिय संयम एवं जैन संस्कृति के अन्य विशिष्ट तत्व महत्वपूर्ण भूमिका निर्वाह कर सकते है। जैन संस्कृति के विशिष्ट तत्व जैसे-रात्रि भोजन का त्याग, मद्य, मॉस एवं मधु का त्याग, पानी छानकर पीना, अणुव्रती, ब्रह्मचर्य आदि स्वास्थ्य की दृष्टि से वैज्ञानिक आधार पर उपयोगी हैं। सूर्य की अल्ट्रवायलेट और इन्फ्रारेड किरणों से सूक्ष्म जीव वातवावरण में विचरण नहीं कर पाते है एवं रात्रि में वह निकल आते हैं और भोजन में शामिल हो जाते है जो स्वाभाविक तौर से स्वास्थ्य को हानि पहुंचाते हैं। इस प्रकार रात्रि भोजन त्याग अहिंसा की दृष्टि से ही नहीं स्वास्थ्य की दृष्टि से भी लाभप्रद है। अधिकांश बीमारियाँ अशुद्ध जल के कारण हो रही हैं। जैन संस्कृति में जीवाणु रहित जल पीने का निर्देश है। इसी तरह शराब व मांसाहार भी स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिकारक हैं। यदि व्यक्ति प्राकृतिक व भौगोलिक दृष्टि से शाकाहारी है और वह मांसाहार करे तो वह प्रकृति के प्रतिकूल भी है। ऐसी स्थिति में मांसाहार विपरीत प्रभाव डालता है। इस संदर्भ में उपाध्याय ज्ञानसागर जी ने लिखा है कि मांसाहार से मस्तिष्क की सहनशीलता व स्थिरता का मस होता है, वासना, क्रूरता व निर्दयता बढ़ती है। ऐसे व्यक्ति में दया, परोपकार व अहिंसा आदि भावनाएँ नहीं रह जाती।' अणुव्रती ब्रह्मचर्य एड्स के खतरे से बचाता है। इन्द्रिय संयम से व्यक्ति निरोगी रह सकता है। जैन संस्कृति की जीवन शैली मानसिक व शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से लाभप्रद है। नैतिक पतन की समस्या व्यक्ति का व्यक्तिगत व सामाजिक नैतिक पतन तेज गति से हो रहा है।। भौतिकता एवं पश्चिमी संस्कृति से प्रभावित आधुनिक संस्कृति में नैतिक मानदंड धराशायी हो रहे हैं। नैतिक चेतना से आशय उचित-अनुचित, वॉछनीय-अवॉछनीय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012067
Book TitleSumati Jnana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivkant Dwivedi, Navneet Jain
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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