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________________ 303 वैदिक एवं श्रमण संस्कृति में इक्ष्वाकु परम्परा इसी प्रकार के ऐतिहासिक दृष्टान्त छठी शताब्दी ईसापूर्व में महावीर एवं बुद्ध के समय के श्रमण परम्परा की अन्य धाराओं के संबंध में भी मिलते हैं किन्तु विस्तृत विवरणों के अभाव में उनकी समालोचनात्मक प्रस्तुति नहीं हो पाती है। श्रावस्ती की पृष्ठभूमि इक्ष्वाकु संस्कृति की रही है। कोसल, मिथिला, मगध और यहाँ तक कि कौशल्या से सम्बद्ध दक्षिण कोसल तक का विशाल क्षेत्र ज्ञान-चर्चा के लिए प्रसिद्ध है। आजीवक सम्प्रदाय के साथ जितने भी अन्य मत एवं चिन्तन दृष्टियाँ दिखाई देती हैं सभी का क्षेत्र एक ही रहा है। इस क्षेत्र में वैदिक इक्ष्वाकुओं की राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक परम्पराएँ विद्यमान थीं। इक्ष्वाकुओं ने कृषि कार्य एवं गोपालन की संस्कृति को आधार बनाया जो सभी प्रकार की परम्पराओं के लिए आवश्यक था। विचारणीय तथ्य यह है कि जब एक सशक्त राजनीतिक एवं सांस्कृतिक वैदिक एवं श्रमण संस्कृतियों के पृष्ठभूमि में विद्यमान थी तो इनका पृथकत्व कैसे हुआ ? और समानान्तर किन्तु परस्पर आदान-प्रदान के साथ इनका विकास कैसे हुआ ? वास्तविकता तो यह है कि दोनों परम्पराओं का पृथकत्व केवल प्रवृत्तिमार्गी तथा केवल निवृत्तिमार्गी दृष्टि से नहीं किया जा सकता है। दोनों परम्पराओं में इन तत्वों की विद्यमानता थी क्योंकि 'आर्यत्व' की जीवन दृष्टि के साथ इनका विकास हुआ था। यह आर्य जीवन दृष्टि इक्ष्वाकु परम्परा की देन है क्योंकि इक्ष्वाकुओं का संबोधन ही 'आर्य' था। इक्ष्वाकुओं के इतिवृत्त को निरूपित करने वाले वाल्मीकि रामायण, महाभारत एवं संस्कृत साहित्य में इक्ष्वाकु 'आर्य अमिधान से ही अभिहित हैं। यहाँ 'आर्य' शब्दार्थिकी पर अलग-अलग अध्ययन पद्धतियों के आधार पर विचार और विवाद हो सकता है। किन्तु इतना स्पष्ट है कि 'आर्य' शब्द श्रेष्ठता का बोधक है। आर्य शब्द के साथ श्रेष्ठता का यह भाव किन परिस्थितियों में जुड़ा, इस पर विद्वानों में मतैक्य नहीं है। इसके बावजूद यह तो स्पष्ट ही है कि मनुष्य के भीतर जो 'ईश्वरत्वं है वही 'आर्यत्व है। 'ईश्वरत्व की वृद्धि होने पर ही मनुष्य 'आर्य बनता है जैसाकि भारतीय परम्परा मानती है और यास्क ने भी इसकी नैरूक्तिक व्याख्या में स्पष्ट किया है (ईश्वरोपि अरिः निरूक्त ५.७)। यथार्थ तो यह है कि समूचे वैदिक वाङ्मय, शब्दकोशों आदि में 'आर्य' शब्द विचार एवं आचार की श्रेष्ठता का बोधक है। इस दृष्टि से विचार करने तथा आचारपरक श्रेष्ठता को देखते हुए यह ज्ञात होता है कि वैदिक एवं श्रमण परम्पराओं में 'आर्यत्व' का गुण प्रधान तत्व रहा है। यह विशिष्ट विचारधारा है। यह विचारधारा भौतिक उपलब्धियों का महत्वहीन नहीं मानती है बल्कि उनका सृजन करती है। सच तो यह है कि देवताओं को संबोधित वैदिक ऋचाओं तथा देव-स्तुतियों में लोकैषणा, वित्तैषणा तथा पुत्रैषणा का ही प्राधान्य है जिसके परवर्ती अतिरेक ने उपनिषदकारों एवं स्वयं गौतम बुद्ध को 'आर्य अवधारणा के पुर्नस्पष्टीकरण के लिए बाध्य कर दिया। जैसाकि सर्वविदित है कि गौतम बुद्ध ने स्वप्रतिपादित चार आर्य सत्यों को 'आर्य सत्य' (चत्वारि-आर्य-सत्यानि) और स्व-उपदेशित मार्ग को 'आर्य मार्ग' (आर्य-अष्टांगिक माग) बताया है। इसी पृष्ठभूमि में वृहदारण्यक उपनिषद् (४. ४. २२) में आत्मज्ञानी के विषय में कहा गया है कि वे पुत्र की कामना, वित्त की कामना और लोक की कामना त्याग देते हैं तथा भिक्षुक जीवन व्यतीत करते हैं (पुत्रैषणायाश्च लौकषणायाश्च वित्तषणायाश्च व्युत्थायाघ भिक्षायर्च चरन्ति) ।" डॉ. शिवाजी सिंह ने यह स्पष्ट किया है कि ऐहिकता आर्य विचारधारा का एक गौण पक्ष है, उसका मूल स्वर नहीं। आर्य-जनों की सामाजिक पहचान आर्थिक सम्पन्नता-विपन्नता पर आधारित नहीं है। आर्यत्व के प्रतीक वैदिक ऋषियों को हम यदा-कदा निर्धनता से घिरा पाते हैं। इसीलिए आर्यत्व में दोनों प्रवृत्तियाँ विद्यमान हैं। ऐतिहासिक तथ्यों से यह स्पष्ट है। 'आर्य' संबोधन एवं 'आर्यत्व की जीवन शैली इक्ष्वाकुओं के साथ सम्बद्ध रही है। मास ने प्रतिनाटकम् में भरत-देवकुलिक संवाद के प्रसंग में देवकुलिक के मुख से कहलाया है कि आर्येति इक्ष्वाकुकुलालापः खल्वयम् । अर्थात् निश्चित रूप से 'आर्य इक्ष्वाकु कुलक्रम है। इस आर्यत्व में सत्य, धर्म, दिव्य, पवित्र, पूर्णतेज, यशस्विता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012067
Book TitleSumati Jnana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivkant Dwivedi, Navneet Jain
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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