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________________ हुआ है। पार्श्वभाग में भी अति सुन्दर विभिन्न वाद्य यन्त्र लिए हुए चित्र बने हुए हैं। मंदिर की भमती (फेरी) तीन फेरियों के रूप में है। चौमुख मुख्य प्रवेश द्वार पर तीर्थङ्करों के जन्माभिषेक का चित्र बना हुआ है। सभी प्रतिमा होने के कारण पहली फेरी गर्भगृह में है, दूसरी फेरी चार भागों खम्भों एवं अन्य खाली स्थानों पर सुन्दर फूलपत्ती का अकंन है। में विभक्त है, क्योंकि चारों ओर दर्शनार्थ जगह रखी गई है। इन चार मंदिर का फर्श सुन्दर संगमरमर का है एवं फर्श में भी अनेकों भागों में प्रत्येक भाग में काउसग्ग मुद्रा में ६तीर्थङ्कर मूर्तियां, दो यक्ष सुन्दर-सुन्दर नमूने बनाये गये हैं, जिनका निर्माण आज असंभव सा मूर्तियां एवं चार नृत्यांगनाएं बनी हुई हैं। इस प्रकार पूरी भमती में २४ प्रतीत होता है। इस मंदिर का विकास क्रम बीसवीं सदी में भी नहीं रुका जिन मूर्तियां, ८ यक्ष एवं १६ नृत्यांगनाएं बनी हुई है। कुल ४८ मूर्तियां और इस सदी के प्रारंभ में ही इसे चित्रकला के माध्यम से सजाने का काम हाथ में लिया गया । बीकानेर के ही चित्रकार मरादबख्श ने मूल नायक के ऊपर विशाल छत्री बनी हुई है, जिसके चारों वि० सं० १९६० में चार वर्ष तक निरन्तर कार्य करके अनेक चित्र एवं खम्भों व वेदी पर शुद्ध स्वर्ण से मनोत का अत्यन्त मनोहारी काम किया सोने की मनोती का कार्य कर मंदिर के सौन्दर्य में अभिवृद्धि की । हआ है । सभा मण्डप को सजाने में भी चित्रकारों ने कोई कसर नहीं उपरोक्त आलेख मेरी दृष्टि में जैन वास्तुकला और चित्रकला के नये छोड़ी और अपने हुनर का स्वर्णिम प्रदर्शन किया है। मंदिर के अन्दर आयामों को समझने में सक्षम होगा। वर्तमान में इसकी प्रबन्ध व्यवस्था विभिन्न जैन कथाओं से सम्बन्धित सैकड़ों चित्र बने हुए हैं जो ऐसे लगते श्री चिन्तामणि जैन मंदिर प्रन्यास नामक संस्था कर रही है। हैं कि अभी मुंह से बोलने वाले हैं। इसके अलावा सभी दरवाजों के जैन परम्परा के विकास में स्त्रियों का योगदान डॉ० अरुण प्रताप सिंह जैन परम्परा की विशेष प्रसिद्धि त्याग, तपस्या, संयम एवं भयभीत व्यक्ति का कथन है जो आध्यात्मिक विकास के मार्ग में स्त्री को निवृत्तिमूलक गुणों के कारण है । वह व्यक्ति में उन मानवीय मूल्यों के बाधक समझता है। इन्हीं ग्रन्थों में जो अत्यल्प उदाहरण प्राप्त हैं, उनसे विकास का प्रयास करती है जिससे व्यक्ति सच्चे अर्थों में मनुष्य बन स्पष्ट है कि पंक स्त्रियां नहीं, पुरुष भी है । वही उसे पथ-भ्रष्ट करना सके । जैन परम्परा सामाजिक एवं धार्मिक सहिष्णुता में विश्वास करती चाहता है और इसका प्रयास भी करता है । उत्तराध्ययन में वर्णित है। वीतरागता का भाव जिस किसी में भी हो, उसके लिए वन्दनीय है। राजीमती एवं रथनेमि का उदाहरण इसका प्रमाण है । राजीमती भोजकुल इस प्रकार यह परम्परा सर्वधर्मसमभाव से अनुप्राणित है। इसका विश्वास के नरेश उग्रसेन की एक संस्कारित पुत्री थी, जिसका विवाह श्रीकृष्ण है कि यदि व्यक्ति अपने अन्तर्निहित गुणों का विकास कर ले तो वह के भ्राता अरिष्टनेमि से होना निश्चित हुआ था। अरिष्टनेमि के संन्यास स्वयं तीर्थंकर बन सकता है। तीर्थंकर आध्यात्मिक गुणों के विकास की ग्रहण करने के उपरान्त राजीमती ने अपने मनसास्वीकृत पति के मार्ग सर्वोच्च अवस्था है। का अनुसरण किया। राजीमती का विधिवत विवाह नहीं हुआ था, वह इतनी उत्कृष्ट अवधारणाओं से संपृक्त जैन परम्परा के विकास चाहती तो पुनर्विवाह कर सकती थी - इसके लिए कोई भी नैतिक या में स्त्री-पुरुष दोनों का प्रंशसनीय योगदान है। फिर भी स्त्रियों का योगदान धार्मिक अवरोध नहीं था; परन्तु सारे वैभव एवं सांसारिक सुखों को तो अति महत्त्वपूर्ण है । अंग साहित्य में "भिक्खु वा-भिक्खुणी वा" तिलांजलि देकर मनसास्वीकृत पति के मार्ग का अनुसरण कर उसने तथा “निग्गन्थ वा निग्गन्थी वा" का उद्घोष न केवल नारी की महत्ता जिस त्याग का परिचय दिया, यह पूरे भारतीय साहित्य में अनुपम है, को मंडित करता है, अपितु उनके योगदान को भी रेखांकित करता है। अद्वितीय है । संन्यास के मार्ग में भी उसका आचरण स्पृहणीय है, जैन परम्परा के आदर्शों एवं मान्यताओं को अक्षुण्ण रखने में वंदनीय है । एकदा अरिष्टनेमि के दर्शन के लिए जा रही राजीमती के स्त्रियों की सार्थक भूमिका थी। सूत्रकृतांगकार को यद्यपि यह कहने में वस्त्र वर्षा के कारण भीग जाते हैं। वहीं एक गुफा में वस्त्र सुखा रही कोई संकोच नहीं है कि स्त्रियाँ हलाहल विष तथा पंक के समान हैं। राजीमती को नग्न अवस्था में देखकर रथनेमि का चित्त विचलित हो यह पुरुष प्रधान समाज का ही दुष्परिणाम है जहाँ हर व्यक्तिगत या जाता है। वे विवाह का प्रस्ताव करते हैं । राजीमती जिस दृढ़ इच्छा सामाजिक बुराई को स्त्री के मत्थे मढ़ दिया जाता है, वास्तव में यह एक शक्ति का परिचय देती है, वह जैन परम्परा की अमूल्य धरोहर है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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