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________________ प्रवरसेन और उनका सेतुबन्ध डॉ० अजित शुकदेव शर्मा प्रवरसेन का 'सेतुबन्ध' महाकाव्य प्राकृत साहित्य में आदि नाम देखने को मिलते हैं - दो कश्मीर के और दो वाकाटक-वंश के। महाकाव्य के नाम से प्रसिद्ध है । इसके कई नाम मिलते हैं, जैसे 'राजतंरगिणी' के अनुसार प्रथम प्रवरसेन प्रथम शती के हैं और दूसरे 'दशमुखवध', 'रावणवध' और रामसेतुप्रदीपम् । रावणवध एवं दशमुखवध प्रवरसेन दूसरी शती के। डॉ० अल्तेकर के अनुसार वाकाटक-वंश के नाम का उल्लेख स्वयं प्रवरसेन ने ही सेतुबन्ध के अंतिम अध्याय आदि पुरुष बिन्ध्यपति के पुत्र प्रवरसेन प्रथम ने २७५ से ३३५ ई० तक (१५/२४) एवं प्रारम्भ में (१/१२) किया है। अलवर के कैटलॉग एवं राज किया। इसी प्रवरसेन प्रथम ने दक्षिण में वाकाटक राज्य का विस्तार रामदास भूपति ने अपनी टीका में क्रमश: रावणवध' एवं 'रामसेतु करके सम्राट की उपाधि धारण की । इसी वाकाटक-वंश की चतुर्थ पीढ़ी प्रदीपम्' का उल्लेख किया है । पुन: महाकाव्य के विषय-वस्तु के में प्रभावती का द्वितीय पुत्र प्रवरसेन द्वितीय का ४१० ई० में राज्याभिषेक अवलोकन से यही तथ्य उद्भाषित होता है कि ग्रन्थ में प्रमुखत: दो हुआ एवं उसका राज्यकाल ४४० ई० तक रहा। वस्तुत: यही प्रवरसेन घटनाओं का ही वर्णन है - समुद्र पर सेतु-रचना का विधान एवं सेतुबन्ध के रचनाकार हैं। प्रवरसेन चूँकि वैष्णव धर्म के मानने वाले थे रावणवध । इन दो घटनाओं में सेतुबन्ध का वर्णन अत्यधिक उत्साहपूर्वक इसलिये विष्णु के अवतार राम के प्रति निष्ठावान होकर उन्होंने रामायण एवं साहित्यिक चमत्कारिता के साथ किया गया है । इसलिये यह की पूर्वपीठिका के सन्दर्भ में सेतुबन्ध की रचना की । यद्यपि उनके निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि ग्रन्थ का नाम सेतुबन्ध ही प्रमुख स्थान व्यक्तितत्व के सम्बन्ध में कोई अलग से ग्रन्थ नहीं प्राप्त है, फिर भी रखता है। उनके विचारों, जीवन-शैली आदि के सम्बन्ध में उनकी ही रचना सेतबन्ध के रचनाकार के सम्बन्ध में भी कई प्रकार के विभ्रम सेतुबन्ध में यत्र-तत्र देखने को मिलती है । सेतुबन्ध के आधार पर कहा उपस्थित होते हैं । सेतुबन्ध के प्रत्येक आश्वास के अन्त में जो पुष्पिका जा सकता है कि वे वैष्णव संस्कृति के पुरोधा है क्योंकि विष्णु के मिलती है, उसमें प्रवरसेन के नाम के साथ कालिदास का भी नामोल्लेख अवतार राम के जीवन-चरित को उजागर करना ही उनका लक्ष्य है। पाया जाता है । सेतुबन्ध के टीकाकार रामदास भूपति तो स्पष्टतः यत्र-तत्र विष्णु के प्रति प्रगाढ़ प्रेम का प्रदर्शन उनके काव्य का विषय कालिदास की ही रचना स्वीकार करते हैं। इस सम्बन्ध में डॉ० रघुवंश है। यद्यपि उन्होंने शिव के प्रति भी अपना प्रेम एवं आस्था को एवं डॉ० श्री रंजन सरिदेव ने यथोचित प्रकाश डाला है। सेतुबन्ध का अभिव्यजित किया है फिर भी वह स्थल कम है। प्रवरसेन का काव्य रचनाकार प्रवरसेन ही है। संभवत: इसके लिपिकार कालिदास नाम के कौशल बाणभट्ट एवं कालिदास के समक्ष रखा जा सकता है, क्योंकि कोई व्यक्ति रहे हों, जिसका नाम प्रवरसेन के साथ जुड़ गया हो । पुनः उनकी रचना में काव्य-संबंधी सभी तत्त्वों का सम्यक् समावेश देखने को ऐसा भी संभव है कि प्रवरसेन का ग्रन्थ अधूरा रहा हो और कालिदास मिलता है। प्राकृत वाङ्गमय के क्षेत्र में उनकी तुलना और अन्य किसी ने उसे पूर्ण किया हो । क्षेमेन्द्र ने अपनी कृति "औचित्य विचार-चर्चा' कवि से नहीं की जा सकती है। उनकी कल्पनाशीलता, अलंकारों का में सेतुबन्ध के रचयिता के रूप में प्रवरसेन को ही स्वीकार किया है। बहुलता से प्रयोग, रसों का सम्यक् समायोजन सिद्ध करता है कि वे महाकवि दण्डी ने काव्यादर्श में सेतुबन्ध काव्य का उल्लेख किया है, एक सिद्धहस्त कवि हैं। उनका ज्ञान-विस्तार भी देखने को मिलता है, लेकिन रचयिता के सम्बन्ध में मौन हैं । यदि सेतुबन्ध कालिदास की क्योंकि उन्होंने उपनिषदों-पौराणिक बिम्बों का आधार लेकर अपने काव्य रचना होती तो उनका नाम अवश्य ही उल्लिखित होता। प्रवरसेन एवं को महिमामंडित करने का प्रयास किया है। राधा गोविन्द बसाक ने ठीक कालिदास की रचनाओं की समीक्षा करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि ही कहा है कि प्रवरसेन का काव्य-पक्ष ठोस धरातल पर अवस्थित है। दोनों के साहित्यिक विचारों, कल्पनाओं एवं उद्भावनाओं में काफी ग्रन्थ के आदि में भगवान् विष्णु और समुद्र का संशलिष्ट चित्र दर्शनीय अन्तर है । कालिदास ने अपने नाटकों में शौरसेनी प्राकृत का सहारा है। साथ ही, इसी गाथा के अंतराल से कवि के पौराणिक संस्कार का लिया है और प्रवरसेन का सेतुबन्ध महाराष्ट्री प्राकृत की रचना है। आलोक भी फूटता नजर आता है। वे दोहरे व्यक्तित्व के कवि हैं, बाणभट्ट ने 'हर्षचरितम्' के प्रारम्भ में सेतुबन्ध के रचनाकार प्रवरसेन का क्योंकि उनकी रचनाओं में सरल से सरल एवं जटिल से जटिल बिम्बों स्पष्टत: उल्लेख किया है । अत: इन ऊहापोहों से अलग हटकर यह का संगुंफन हुआ है। कहा जा सकता है कि सेतुबन्ध के रचयिता प्रवरसेन ही हैं। सेतुबन्ध के प्रारम्भिक गाथायें उपनिषदों के प्रतिबिम्बित रूप प्रवरसेन के देश-काल के सम्बन्ध में भी ऊहापोह देखने को प्रदर्शित करती हैं, क्योंकि कवि ने विष्ण की रहस्यमयता को विरोधभाय मिलते हैं । ऐतिहासिक धरातल पर प्रवरसेन नाम के चार राजाओं के के द्वारा व्यंजित किया है। उनका कहना है कि विष्ण ऊँचाई के Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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