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________________ १२८ इनमें पाण्डित्य का अनुपम पुट है, जो सर्वथा स्तुत्य है । यहाँ यह कहना भी उचित प्रतीत होता है कि सौन्दर्य और प्रेम का सन्देश देने वाले महाकवि कालिदास ने काव्य की जिस विधा को छू लिया, वह अमर हो गई। काव्यत्रयी के रघुवंशम् और कुमार सम्भवम् में आदर्शोन्मुख प्रेम की मधुर कल्पना में कवि को नायक-नायिकाओं के पारस्परिक मिलन एवं तिरोधान की आँख मिचौनी में न जाने कितने अवसर रोने, रुलाने एवं विकलता में विक्षिप्त भावना के प्रलापों की अभिव्यक्ति के अवसर प्राप्त हुए हैं"। कवि की काल्पनिक सांसारिकता, प्रेम के परिधान में मेघदूतम् के रूप में साकार हो उठी है, जहाँ केवल प्रेम है, स्नेह है, लालसा है और तीव्रतम अनुभूतियों की भावभूमि में आत्मसमर्पण की अजेय परवशता है। महाकवि कालिदास की काव्ययी की इसी विशिष्टता की ओर आकर्षित होकर महाकवि की कविता मन्दाकिनी में न जाने कितने काव्य-मर्मज्ञ कलम के सपूत टीकाकारों ने केवल हिलोरें ही नहीं लिये हैं अपितु चूणान्त निमज्जन भी किया है। मानवीय भावनाओं को इतनी मधुरता से संजोया है कि प्रत्येक मधुप उसके भाव-परिमल में स्वभावतः मुग्ध होकर गुनगुना उठता है और आनन्द-विभोर हो उठता है। फलतः जिज्ञासु को प्रत्येक श्लोक के उचित शब्दों के पारस्परिक सम्बन्ध का ज्ञान तथा श्लोक की भावात्मक अन्तरात्मा को आत्मसात करने में बड़ी ही सहायता प्राप्त होती है। ये टीकाएँ संस्कृत साहित्य के कोश की श्रीवृद्धि में एक बहुत बड़ी देन है । इनमें संस्कृत काव्यानुरागियों को अनुरंजित करने की पूर्ण क्षमता भी है। इन टीकाकारों ने महाकवि की अभिव्यक्ति को अपने सुघड़ हाथों इतना सुन्दर संवार दिया, इतने रंगों से भर दिया कि अपने गुणों की गरिमा में वे अनूठी बनकर रह गई और काव्य-रस-पिपासु आनन्दमग्न हो गये । सन्दर्भ १. महाकवि कालिदास, पृ० ६२ २. क- जिनरत्नकोश, पृ० ३२५ ख- जैनग्रन्थ और ग्रन्थकार, पृ० ४२ क- जिनरत्नकोश, पृ० ३२५ ख- जैनग्रन्थावली, पृ० ३३५ ४. जैन ग्रन्थ और ग्रन्थकार, पृ० ४९ ५. जिनरत्नकोश, पृ० ३३५ ६. जैन ग्रन्थावली ५० ३३५ पृ० ७. जिनरत्न कोश, पृ० ३२५ ८. क. जिनरत्नकोश, पृ० ३३५ ३. ख. जैनग्रन्थ और ग्रन्थकार, पृ०४९ Jain Education International ग. समयसुन्दर कृत कुसुमांजलि, पृ०५१ ९. जैनधावली पृ० ३३५ जैन विद्या के आयाम खण्ड- ७ 1 १०. जैनबन्ध और अन्यकार, पृ०५४ ११. जिनरत्नकोश, पृ० ३२५ १२. जिनरत्नकोश, पृ० ३२५ १३. वही, १४. क. वी. ख. जैन ग्रन्थ और ग्रन्थकार, पृ. ५२ १५. जिनरत्नकोश, पृ० ३२६ १६. जिनरत्नकोश, पृ० ३२६ १७. वही, पृ० ९३ १८. वही, १९. क. जैन ग्रन्थावली, पृ० ३३४ ख. जैन ग्रन्थ और ग्रन्थकार, पृ० ५४ २०. जिनरत्नकोश, पृ० ९३ २१. बही २२. वही, २३. वही, २४. वही, २५. वही २६. जिनरत्न कोश, पृ० ९४ २७. वही, २८. वही, २९. महाकवि कालिदास, पृ १२४ ३०. क. जिनरत्नकोश, पू. ३१३ ३१. ख. जैन ग्रन्थ और प्रकार पृ० २६ ३२. जिनरत्नकोश, पृ. ३१४ ३३. जैन प्रन्थावली, पृ० ३३५. ३४. जिनरत्नकोश, पृ. ३१४ ३५. जैन ग्रन्थावली, पृ० ३३५ ३६. जिनरत्नकोश, पू. ३१४ ३७. श्री जिनरत्नकोश: श्री हरि दामोदर वेलणकर, पृ. ३१४ ३८. क. श्री जिनरत्नकोश, पृ. ३१४ ख. जैन ग्रन्थ और ग्रन्थकार, पृ० ५४ ३९. समय सुन्दर कृत कुसुमांजलि, पृ ५१ ४०. जिनरत्नकोश, पृ० ३१४ ४९. वही, ४२. जिनरत्नकोश, पृ० ३१४ ४३. जैनबन्धावली, पृ० ३३५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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