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________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ I वैसे ही परम श्रद्धेय श्री हेमेन्द्रसूरीश्वरजी के जन्म पर सर्वत्र आनंद की रश्मियां बिखर रही थी। द्वितीया के चन्द्रमा के समान आपका जीवन पुष्प विकसित हो रहा था और साथ ही वैराग्य के भाव भी बढ़ रहे थे । मानों वैराग्य भावनाओं को साथ लेकर ही जन्में हो। उसी कारण आपश्री परम पूज्य श्री हर्षविजयजी म.सा. के सान्निध्य में युवा वय में ही संयम की राह पर चल पड़े। दीक्षा के पश्चात् मेधावी बुद्धि होने के कारण थोड़े ही दिनों में आपके जीवन रूपी उपवन में ज्ञान की फुलवारी खिलने लगी । देखकर गुरु श्री हर्षविजयजी म.सा. को अपरिमित संतोष था । उनके मुखसे निम्न मेधावी शिष्य के जीवन को वाणी झंकृत हो जाया करती थी चन्दन को टुकडों भलो, गाड़ी भली न काठ | चतुर तो एक ही भलो, मूरख भला न साठ || ज्ञान के साथ ही आपके जीवन में सरलता मृदुता, सौम्यता सहिष्णुता, करुणा, दया आदि अनेकानेक गुणों की झांकियां देखने को मिलती हैं । दया तो रग-रग में भरी हुई हैं अतः किसी का दुख देख नहीं सकते हैं । दीन दुखियों की सहायता करना आप अपना परम धर्म समझते हैं । अपने गुरु के पावन सान्निध्य में रहते हुए तथा गहनतम अध्ययन करते हुए भी आप बचपन से ही सेवाभावी बन गये। 'सेवा से मिले मेवा उस बात को सार्थक करने के लिए आपने अपने जीवन में सेवा धर्म को अपनाया । मन ही मन किसी का मुक्तक गुनगुनाते रहते थे - वह तन किस काम का, जो किसी की सेवा न कर पाया । वह मन किस काम का जो दुःखियों के हृदय जख्म न भर पाया, निरर्थक है उस धन का पाना, जो किसी की जिन्दगी को संवार न पाया || पूज्य श्री ने अंततः सेवा से मेवा प्राप्त कर ही लिया । याने साधु समाज एवं श्रीसंघ ने अनेकानेक गुणों के कारण प. पू. कविरत्न श्रीमद् विजय विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी के देवलोक गमन के पश्चात् वि. सं. 2040 माघ सुदि 9 दिनांक 10-2-1983 को आहोर (जि. जालोर) में अत्यन्त समारोह पूर्वक आचार्यपद से आपको अलंकृत कर दिया । जैसे आचार्य पदवी के पश्चात आपने अपने जीवन में अनेकानेक गांव नगरों में विचरण कर अनेक अंजनशलाकाएं प्रतिष्ठाएं सम्पन्न करवाई और बम्बई जैसी महा नगरी में आपने राष्ट्रसंत शिरोमणि की पदवी प्राप्त की । गांव गांव, नगर - नगर में धर्म की धूम मचा दी । जहां तहां सर्वत्र धर्म का रंग उतना फैलाया कि लोग धर्म के रंग में रंगने लगे। वृक्ष की शीतल छाया में विश्राम लेने वाले पथिक को अपूर्व शांति का अनुभव होता है, वैसे ही पूज्यश्री के सान्निध्य में लोगों को अपूर्व धर्म का लाभ और आत्म शांति प्राप्त होती है । सूर्य हजारों मील दूर है, किन्तु उसकी प्रभा से कमल खिल उठता है, वैसे ही आपश्री का उपदेश तो दूर रहा, किन्तु आपकी शांत और मौन जीवनचर्या भी हजारों व्यक्तियों को प्रेरणा देती हैं । आप अपनी साध्वाचार की क्रिया में अंशमात्र भी दोष नहीं लगने देते हैं । वृद्धावस्था होते हुए भी सारा काम अपने हाथों से करते हैं। आपश्री की स्नेह सरिता कल कल छल छल करती हुई सदा प्रवाहित रहती है और पाप पंक को नष्ट कर देती हैं सदा खिलते हुए मुख कमल को देखकर जो भी एक बार सम्पर्क में आता है वह प्रभावित हुए बिना नहीं रहता है । Education ऐसे परम पूज्य गुरुदेव श्री हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. युगों युगों तक जीए और प्राणिमात्र को धर्म की राह बताये। इसी शुभ कामना के साथ शत् शत् वंदन - फूल तो बहुत 'है, परन्तु गुलाब तो गुलाब है । सितारे तो बहुत है लेकिन चांद तो चांद है । जैन शासन में आचार्य तो बहुत है लेकिन - हेमेन्द्र जैसा कोई नहीं हेमेन्द्र तो हेमेन्द्र है || हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 23 हेमेन्द्र ज्योति हेमेजर ज्योति
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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