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________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ जैन पर्व : प्रयोग और प्रासंगकिता - श्रीमती डॉ. अलका प्रचंडिया प्राण धारियों में मनुष्य एक श्रेष्ठ प्राणी है । इसकी श्रेष्ठता का मुख्य कारण है, उसमें निहित ज्ञान और श्रद्धान पूर्वक तप और संयम करने की अमोघ शक्ति और सामर्थ्य | इसी शक्ति के आधार पर वह अपनी आत्मिक और आध्यात्मिक विकासयात्रा को पूर्ण करता है । इसी आधार पर उसकी सांस्कृतिक और सामाजिक उन्नति प्रभावित होती है। श्रम मनुष्य में स्वावलम्बन के संसार उत्पन्न करते हैं। कोई भी जागतिक अथवा आध्यात्मिक कार्य सम्पादन श्रम साधना पर निर्भर करता है । सम्यक् श्रम-साधना श्रमी को उन्मार्ग से हटाकर सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा प्रदान करती है । जीवन जीना एक कला है । हृदय के साथ किया गया श्रम कला का प्रवर्तन करता है । इसी कला के पूर्ण विकास और प्रकाश से सम्पन्न करने में पर्व की भूमिका महत्त्वपूर्ण है । पर्व के प्रयोग और उसकी प्रांसगिकता विषयक संक्षिप्त अनुशीलन प्रस्तुत करना यहां हमारा मूल अभिप्रेत है । पर्व और त्योहार समानार्थी बन कर प्रयोग में प्रायः आते हैं । पर्व और त्योहार के आर्थिक स्वरूप में पर्याप्त अन्तर है । त्योहार हमारे बाह्य जीवन और जगत में अपूर्व उत्साह और उल्लास का संचार करते हैं । पर्व हमारे आत्मिक और आध्यात्मिक जीवन में प्रकाश और विकास को पूर्णता प्रदान करते हैं । त्योहार यदि हमारे बाह्य जीवन को प्रभावित करते हैं तो पर्व से हमारा आन्तरिक जीवन आलोकित होता हैं । चातुर्मास, पर्युषण, दीपावली, संवत्सरी गौतम प्रतिपदा, ज्ञानपंचमी, मौन एकादशी आदि पर्व की कोटि में परिगणित किये जाते हैं । उन्हें आध्यात्मिक पर्व भी कहा जाता हैं । सांस्कृतिक और सामाजिक दृष्टि से अनेक त्योहार हैं | नवीन संवत्सर, रक्षाबंधन, श्राद्ध अर्थात् देव, गुरु और धर्म के प्रति सच्चा श्रद्धान, विजयदशमी, धनतेरस, नरक चतुर्दशी, दीपावली, गोवर्धन व नाम गौतम प्रतिपदा, भैयादूज, वसंत पंचमी, श्रुतपंचमी, तथा होली आदि त्योहार उल्लेखनीय हैं । चातुर्मास : आषाढ़ी पूनम से कार्तिक पूनम तक चार महीने की सुदीर्घ अवधि तक जैन साधु-साध्वी एक ही स्थान पर निवास करते हैं । अपरिग्रही श्रमण संत सदा पदयात्री होते हैं। वे असंग भाव से विहार करते हैं, आहार ग्रहण करते हैं और लोगों को जीवन सफलता हेतु कल्याणकारी शुभ उपदेश देते हैं । उस दीर्घ अवधि में ये संत ध्यान साधना स्वाध्याय और लेखन में मनोयोग पूर्वक प्रवृत्त होते हैं । अब यहाँ कतिमय प्रमुख पर्व और त्योहारों पर चर्चा करेंगे । पर्युषण : यह आत्मिक जागरण का पर्व है । यह पर्व आठ और दश दिवसीय अवधि में भक्ति भावना पूर्वक मनाया जाता है । आठ दिवसीय पर्युषण पर्व का आधार अष्टान्हिका है जो वर्ष में चार बार मनाया जाता है । भाद्रवा में उसे पर्युषण कहते हैं । व्रत विधान तथा पूजा-पात्र परायण हम उस पर्व को उत्साह पूर्वक सम्पन्न किया जाता है । उस अवसर पर आत्मा के राग-द्वेष आदि विकारों की उपशान्ति करना होता है । अन्त में आन्तरिक भाव और भावना से किए गये दोषों के प्रति प्रतिक्रमण करने की पद्धति प्रचलित है । जहाँ यह पर्व दश दिवसीय अवधि का मनाया जाता हैं वहां प्रत्येक दिन धर्म के दश लक्षणों का क्रमशः चिन्तवन किया जाता है । उस प्रकार उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य तथा ब्रह्मचर्य हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 95 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Phot
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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