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________________ श्री राष्टसंत शिरोमणि अभिनंदन पंथ बाइबिल में तो इतना तक कहा है - "तुम्हारा दायां हाथ जो दान देता है उसे बायां हाथ न जान पाये।" कितनी सुन्दर बात बताई है । परन्तु हमने तो जरा सा भी दान दिया कि नाम पहले चाहिए । कहा है - दान देते एक पैसा, नम्बर पहला रखते हैं, पुण्य करते हैं राई भर, अरमान स्वर्ग का गढ़ते हैं । विज्ञापन तो इतना बढ़ गया कि क्या कहें - धर्म की दुहाई देकर दुनिया को ठगते हैं । दान जीवन को अलंकृत करने वाला सबसे बड़ा आभूषण है- जिसके अभाव में मानव जीवन असुन्दर और निरर्थक जान पडता है । राजा हरीश्चन्द्र और कर्ण जैसे दानी तो इस जगत् में विरले ही मिलेंगे । और भी जैन इतिहास की ओर दृष्टिपात करते है तो ज्ञात होता है कि कितने दानी हुए हैं - शालीभद्र ने ग्वाले के भव में दान देकर अनंत रिद्धि सिद्धि को पाया था । घृतदान के प्रभाव से धन्य सार्थवाह ने प्रथम तीर्थकर पद पाया था । इतिहास प्रसिद्ध कुमारपाल राजा, संप्रतिराजा, जगडूशाह, भामाशाह, खेमा देदराणी आदि की दान वीरता सूर्य के प्रकाश की भांति आज भी जगमगा रही है। दान श्रावक का मुख्य गुण है । बारहव्रतों में भी 12वां व्रत अथिति संविभाग आता है । किसी विद्वान ने कहा है - सैकड़ों पुरुषों में कोई एक व्यक्ति ही शूरवीर निकलता है तथा हजारों में एकाध पंडित, वक्ता तो दश हजार व्यक्तियों में से भी मुश्किल से एक निकल पाता है । परन्तु दाता मिलना तो महान् मुश्किल है । ढूंढने पर भी मिले या न मिले । दान तमाम दों की दवा है । दान से शारीरिक और मानसिक सभी प्रकार के कष्ट दूर होते हैं । आपके दिल में प्रश्न उठता होगा कि बीमारियाँ कैसे दूर होती है? आपने पढ़ा, सुना होगा कि दान देते समय अगर उत्कृष्ट भावना आ जाय तो तीर्थकर नाम गोत्र कर्म का बंध होता है । क्या यह चमत्कार नहीं है? वस्तु साधारण थी किन्तु भावना असाधारण होते ही दान देते देते तीर्थकर नाम कर्म उपार्जन कर लिया तो भविष्य में कोई भी रोग पीड़ा, किसी भी प्रकार के कष्ट की संभावना नहीं रहती है । शारीरिक और मानसिक सभी प्रकार की वेदनाओं से सदा सदा के लिए मुक्ति मिल जाती हैं । जो इन्सान इसे समझ लेता है । वह सदा के लिए दुःखों से मुक्त होता है । किसी ने कहा - ज्यों ज्यों धन की थैली दान में खाली होती है, दिल भरता जाता है । वेदों में कहा है - "सैकड़ों हाथों से इकट्ठा करो और हजार हाथों से बांटो ।" अगर व्यक्ति ऐसा नहीं करता है तो धन उसके लिए अनेक आपत्तियों का कारण बन जाता है । क्योंकि लक्ष्मी के चार पुत्र होते हैं । धर्म, राजा, अग्नि और तस्कर। इन चारों में से ज्येष्ठ पुत्र का अपमान किया जाय तो तीनों ही क्रोधित हो जायेंगे । आपको समझ में नहीं आया होगा कि धर्म का अपमान कैसे? जो व्यक्ति नीति मार्ग का त्याग कर अनीतिपूर्ण कार्य करता है, महापुरुषों के हितकारी वचन नहीं मानता है, अधर्म को धर्म मानता है, असत्य आदि दुर्गुणों को अपनाकर दान आदि गुणों से दूर रहता है, वह धर्म का अपमान ही करता है। दान पुण्य करना ही लक्ष्मी के ज्येष्ठ पुत्र का नाम धर्म है । दीन दुःखियों की सहायता न कर अनीति से एकत्र करता ही जाता है, उसका धन राजा छीनना प्रारंभ कर देता है। आज सरकार इनकम टैक्स, सैलटेक्स आदि अनेक प्रकार के टेक्स लेकर लोगों से पैसा छिनती हैं । अधिक क्या, व्यक्ति के मरने पर भी लाश को भी टेक्स लेकर जलाने देती है । करोड़पति मर गया तो टेक्स लिए बिना लाश उठाने नहीं देती। उस प्रकार धर्म कार्य में खर्च न करने पर प्रथम राजा या सरकार ही धन छिनती है। अगर बच भी जाय तो लक्ष्मी का तीसरा पुत्र अग्नि उसे स्वाहा कर लेता है । आये दिन समाचार पत्र में पढ़ते है कि अमुक दुकान में फेक्ट्री में, कारखाने में आग लगी अत्यधिक हानि हुई । वर्षों से कमाया धन क्षणमात्र में सभी स्वाहा हो जाता है । फिर चोरों की आंख तो धन पर ही टीकी रहती है । अगर धर्म, राजा, अग्नि से बचा तो दॉव लगते ही चोर सफाया कर जाते हैं । लक्ष्मी पुत्र होने के नाते से वे भी अपना हिस्सा मांगते हैं । मतलब यही हैं कि व्यक्ति शुभ कार्यों में खर्च नहीं करता है तो तीनों भाई किसी न किसी प्रकार नाराज होकर लूटने का प्रयत्न करते हैं । अतः दान अवश्य देना चाहिए अगर दान नहीं देते हैं तो नई लक्ष्मी कैसे प्राप्त होगी? अतः कहा गाय को गर नहीं हो तो वह दूध नहीं देती, वृक्ष की डाली से यदि फूल नहीं चुनो तो,वह फल नहीं देती । पुरानी सम्पत्ति का सद्उपयोग नहीं किया तो - लाख प्रयत्न करो नूतन लक्ष्मी प्राप्त नहीं होती । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 81 हेमेन्ट ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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