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________________ निरंतर दान करते हैं, जिसे है, संग्रह से नहीं । श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन शेय । ग्रंथ जीवन में जीवन में दान का महत्व लोभ कपट आदमी के आचरण को गिरा देता है, छिन सारी खुशियाँ, जीवन को नरक बना देता है । मानव वही जीवन में सुखी रहता है जो हृदय में अपने दान का दीप जला लेता है । - साध्वी पुष्पाश्री जैन शासन में धर्म ग्रन्थों के अनुसार धर्म के चार अंग माने गये हैं- दान, शील, तप भावना । इन चारों में दान प्रथम है। धर्ममय जीवन का प्रारंभ दान से ही होता है। दान से व्यक्ति का संसार भ्रमण कम होता है और दुःखों से मुक्ति मिलती है। आज तक जितने भी तीर्थकर हुए हैं, वे सभी संयम ग्रहण के पूर्व एक वर्ष तक वर्षीदान कहा जाता है (एक करोड़ आठ लाख सुवर्ण मुद्राएँ) दान से ही गौरव मिलता दान क्रिया का प्रारंभ भगवान ऋषभदेव के समय से प्रारंभ हुआ था दान की महिमा अपरंपार है। सभी धर्मों ने दान की महिमा को स्वीकारा है । मानव जीवन की श्रेष्ठता दान रूपी धर्म का आचरण करने में ही है । अगर ऐसा न होता तो मनुष्य और पशु में कोई अंतर नहीं होता । उदर पूर्ति सभी करते हैं। पर विवेकी मानव को दानवृत्ति से ऊंचा उठकर जीवन को सार्थक करना है। जिस मानव के ह्रदय में दान देने की भावना नहीं होती है, उसका हृदय एक बंजर भूमि के समान गुणहीन है । दान के गुण कहां तक गिनाएँ । कहा है- "दान से समस्त प्राणी वश में हो जाते हैं, दान से शत्रुता का नाश होता है, दान से पराया भी अपना हो जाता है, दान से समस्त विपत्तियों का नाश होता है ।" दिया हुआ दान कभी निष्फल नहीं जाता है । वह तो ब्याज सहित पुनः मिलता है । कहा है - ब्याजे स्यात् द्विगुणं वित्तं, व्यापारे च चतुर्गुणम् । क्षेत्रे शतगुणं प्रोक्तं, दानेऽनन्तगुणं भवत् ॥ इस श्लोक द्वारा प्रमाणित होता है कि दान का कितना महत्व है । दान एक अमृत का झरना है। दान से केवल कीर्ति और सम्मान ही नहीं मिलता किन्तु मनुष्य स्वर्ग और मोक्ष की मंजिल को भी प्राप्त कर सकता है । शेखसादी ने कहा "जो आदमी धनी होकर भी कंजूस है वह वास्तव में धन का कीड़ा है । जो गरीब होकर भी दान करता है, वह भगवान के बगीचे का प्यारा फूल है ।" I जिसके पास धन सम्पत्ति का सागर भरा पड़ा है। वह यदि दो चार चुल्लू भर पानी जितना किसी को दे देता है तो उसकी भावना में वह परितृप्ति और आनंद की उर्मि नहीं उठ सकती है जो एक चुल्लूभर पानी में से कुछ बूंद देकर किसी की प्यास को शांत करने में उठती है । वही व्यक्ति जीवन में कुछ पाता है । दान के पांच प्रकार बतलाये हैं. अभयदान, उचितदान, अनुकम्पादान, कीर्तिदान और सुपात्रदान । व्यवहार दृष्टि से दान के तीन प्रकार बतलाये हैं "दूध, पानी और विष ।" जो गुप्तदान दिया जाता है वह दूध के समान है। मित्र सगे सम्बन्धियों को जो दान दिया जाता है वह पानी के समान । दान देने के बाद जाहिर कर लेते हैं वह विष के समान । दान अमृत है पर जाहिर करने से जहर बन जाता है। हेमेन्द्र ज्योति मे ज्योति 80 दान से अनंतगुणा लाभ ही लाभ है। घाटे की कोई संभावना नहीं रहती है । किन्तु एक शर्त अवश्य है कि दान देते समय देनेवाले की भावना पूर्ण रूप से शुद्ध होनी चाहिए । दान देते समय स्वार्थ की भावना नहीं होनी चाहिए। दान देनेवाला और लेनेवाला दोनों ही पवित्र होने चाहिए । मेजर ज्योति र ज्योति
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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