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________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ पोरवाल जाति का संक्षिप्त इतिहास - मुनि चन्द्रयशविजय पोरवाल जाति भारतवर्ष की प्रमुख जातियों में से एक है । श्वेताम्बर जैन जातियों में पौरवाल जाति एक महत्वपूर्ण जाति है । इस जाति में अनेक उज्ज्वल एवं तेजस्वी रत्न उत्पन्न हुए हैं, जिन्होंने इसकी गौरव गरिमा में चारचाँद लगा दिये है । इस लघु निबन्ध में हम पौरवाल जाति की उत्पत्ति और उसके गोत्रों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहे हैं । यहां यह स्पष्ट करना हम उचित समझते हैं कि हमारा यह निबंध श्रीदौलत सिंह लोढा कृत प्राग्वाट इतिहास पर आधृत है । इसके अतिरिक्त यदि अन्य कोई संदर्भ सामग्री मिलती है तो यथा स्थान उसका उल्लेख किया जावेगा । यहां यह उल्लेख करना प्रासंगिक ही होगा कि जैन संस्कृति में व्यक्ति का महत्व उसके जन्म जात कुल, वंश, गोत्र आदि से नहीं माना जाता बल्कि उसका मूल्यांकन उसके शीलादि गुणों से किया जाता है । इससे यह स्पष्ट होता है कि जैन धर्म संस्कृति में जाति को कोई महत्व नहीं दिया गया है। फिर भी जातियाँ हैं तो उनपर विचार तो करना ही होता है। तत्कालीन प्राग्वाट श्रावक वर्ग वर्तमान समय में पोरवाल कहलाता है । इसकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में कहा जाता है कि इसकी उत्पत्ति भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् लगभग 57 वर्ष श्री पार्श्वनाथ संतानीय श्रीमद् स्वयंप्रभसूरि ने भिन्नमाल और पदमावती में की थी किंतु डॉ. के. सी. जैन का मत है कि पौरवाल जाति की उत्पत्ति श्रीमाल (भिन्नमाल का अन्य नाम) से होना सही प्रतीत नहीं होता । उनके मतानुसार प्राचीन अमिलेखों एवं हस्तलिखित ग्रंथों में पौरवाल के लिए प्राग्वाट शब्द का उपयोग किया गया हैं और प्राग्वाट मेवाड़ (मेदपाट) का दूसरा नाम है ऐसा प्रतीत होता है कि प्राग्वाट क्षेत्र के निवासी कालांतर में प्राग्वाट या पोरवाल कहलाने लगे । पोरवाल अपनी उत्पत्ति मेवाड़ के पुर नामक गांव से बताते हैं। पोरवाल भी लघु शाखा और बृहद शाखा में विभक्त हैं | (Jainism is Rajasthan) गुप्त वंश की अवंती (उज्जैन) में सत्ता स्थापना से वैदिक मत पुनः जागृत हुआ । अब जहां अजैन जैन बनाये जा रहे थे, वहां जैन पुनः अजैन भी बनने लगे । जैन से अजैन बनने का और अजैन से जैन बनने का कार्य विक्रम की सातवीं आठवीं शताब्दियों में उद्भट विद्वान कुमारिलभट्ट और शंकाराचार्य के वैदिक उपदेशों पर और उधर जैनाचार्यों के उपदेशों पर दोनों ही ओर खूब हुआ । रामानुजाचार्य और वल्लभाचार्य के वैष्णव मत के प्रभावक उपदेशों से अनेक जैन कुल वैष्णव हो गये थे । इसका परिणाम यह हुआ कि वैश्यवर्गों में भी धीरे धीरे वैदिक और जैन मत दोनों को मानने वाले दो सुदृढ़ पक्ष हो गये । उसीका परिणाम है कि आज भी वैष्णव पौरवाल और जैन पोरवाल है डॉ. के.सी. जैन पोरवाल जाति की उत्पत्ति का समय आठवी शताब्दी मानते हैं । अब पोरवाल जाति के गोत्रों पर विचार करते हैं । सामान्यतः गोत्रों की उत्पत्ति किसी पुरुष के नाम पर, गांव के नाम पर कर्म के अधार पर अथवा किसी घटना विशेष के आधार पर मानी जाती है । डॉ. जैन ने पोरवाल के लगभग चौदह गोत्रों का उल्लेख किया है । उनका यह उल्लेख शिलालेखों और हस्तलिखित ग्रंथों पर आधृत है। इसके विपरीत श्री दौलतसिंह लोढा ने इस सम्बन्ध में विस्तार से लिखा है और पोरवाल जाति के क्षेत्रवार गोत्रों की चर्चा की है । उनका कहना है कि उपलब्ध चरित्र, ताम्रपत्र, प्रशस्ति, शिलालेखों से, ख्यातों से और वर्तमान जैन कुलों के गोत्रों के नामों से तथा उनके रहन सहन, संस्कार, संस्कृति, आकृति कर्म, धंधों से स्पष्टतः और पूर्णतः सिद्ध है कि ये कुल वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मण कुलोत्पन्न है । प्राग्वाट जाति या पोरवाल जाति की निम्नांकित शाखाओं का उल्लेख श्री लोढ़ा ने किया है । यथा - हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 66 हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति male
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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