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________________ श्री राष्टसंत शिरोमणि अभिनंदन गंथा आवश्यक प्रसंग आने पर जिन आज्ञा को ध्यान में रखते मर्यादा व द्रव्यख्य काल भाव अनुसार यथोचित अपवादमार्ग का भी सेवन करते हैं तभी बाद में उसमें सेवन में लगे दोषो का समुचित प्रायश्चित ले शुद्धि करण करते हैं । महामंत्र में णमो शब्द के प्रयोग का हेतु - 1. परमेष्ठी महामंत्र में णमो' शब्द का छ: बार प्रयोग हुआ है । जिससे छ प्रकार का कषाय जो 'अहं' व 'मम' रूप है गलित होता है । 'अहं' के तीन रूप हैं - क्रोध, मान व द्वेष 'मम' के तीन रूप हैं - माया, लोभ व राग । 'णमो' में 'ण' नहीं व 'मो' मोरा 'या' मोह का प्रतीक भी है । इस तरह णमो - 'नहीं मोरा' से 'अहं' तथा नहीं 'मोह' में 'मम' का विनाश होता है । इस प्रकार से 'णमो' संसार की जड 'अहं' व 'मम' दोनों का ही सर्वथा समाप्त करने वाला है। णमो धर्म का मूल है तथा वंदन का पर्याय भी है जिसके लिए कहा गया है - वंदनीय गोय कम्मं खवंइ, उच्च गोय कम्मं निबंधई । अर्थात् वंदन से नीच गोत्र का क्षय और उस गोत्र का बंधन होता है । भावपूर्वक पंच परमेष्ठी को वंदन से उत्कृष्ट इसायन आने पर तीर्थकर गोत्र का उपार्जन होता है । 'णमो पुण्य का नवम भेद है । जिससे सहन व उत्तम पुण्य अर्जित होता है । (गुप्तियो व संयमियों को नमन से) परमेष्ठी मंत्रराज का महत्व - 1. विश्व के किसी भी धर्म या पंथ मे ऐसा महान परमोत्तम मंत्र, खोजने पर भी नहीं मिलेगा । जैसे वैदिक धर्म में गायत्री मंत्र का, बौद्ध धर्म में त्रिशला मंत्र का महत्व है वैसे जैन धर्म में इनसे भी अधिक महत्त्व नवकार महामंत्र का है । इस तथ्य की निष्पक्ष सत्यता को इन मंत्रों के अर्थो से समझा जा सकता है। 2. यह परमेष्ठी महामंत्र अचिन्त्य लाभ प्रदाता है कहा है - “संग्राम सागर करीन्द्र भुजंग सिह, दुर्व्याधि वन्हि रिपु बंधन संभवानि | चोर ग्रहज्वर निशाचर शाकिनी, नाम नश्यन्ति पंचपरमेष्ठी पदे भयानि I अर्थात् नमस्कार महामंत्र द्वारा महायुद्ध, समुद्र, गज, सर्प, सिंह, दुख अग्नि, शत्रु, बंधन, चोर, ग्रह, बुखार, निशाचर (राक्षस) शाकिनी आदि का भय नष्ट होता है । इसके लिए और भी कहा है - "अपराजित मंत्रोंऽय सर्वविघ्न विनाशनः ।" अर्थात् यह महामंत्र अपराजित है । अन्य किसी भी मंत्र द्वारा इसकी शाक्ति को प्रतिहत या अवरुद्ध नहीं किया जा सकता । इसमें असीम सामर्थ्य निहीत है, तथा सर्व विघ्नों को क्षणभर में नष्ट करने वाला है । 3. यह महामंत्र जिनवाणी का सार भाव औषधि रूप महारसायन है । इसके प्रत्येक अक्षर में कोटि कोटि शुद्ध महान आत्माओं की प्रति ध्वनियाँ शुभ आकांक्षा एव मंगल भावनाएं झंकृत होती है तभी पाप पुञ्ज पलायिनी, अशुभ कर्म नाशिनी एवं वेदना निग्रह कारिणी दिव्य शक्तियों का भण्डार इसमें निहीत है । ऐसे अपरिमित शक्तिवाले महामंत्र के उच्चारण मात्र से सूक्ष्म शरीर में छिपे अनेक शक्ति केन्द्र जाग्रत होते हैं । इसका उच्चारण जिह्वा दाँत, कण्ठ, तालु, ओष्ठ, भूर्धा आदि से होने से, एक विशेष प्रकार का स्पन्दन होता है, जो विभिन्न शक्तियाँ व चेताना केन्द्रों को जाग्रत करते हैं । इस प्रकार से जो कार्य बड़ी साधना व तपस्या से भी बहुत समय में कठिनता से पूर्ण होता है, वह नवकार मंत्र से स्वप्न समय में बड़ी सरलता से पूर्ण हो जाता है । 4. इस महामंत्र का न आदि है न अंत । इसका रंचयिता कौन है, अज्ञात है । दिगम्बर परम्परा के एक मत अनुसार इसके रचयिता आचार्य पुष्पदंत माने जाते हैं । जो भगवान महावीर के 650 वर्ष पश्चात हुए थे । किन्तु इस मान्यता का कोई प्रमाणिक आधार नहीं मिलता है । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 56 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Janational
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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