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________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ भाव सच्चे से अभिप्राय, उपशम, क्षयोपशय क्षायिक भाव विशुद्धि करण सच्चे से आत्म प्रवृति की विशुद्धि व 'जोग सच्चे' से तीनो योगों की एक रूपतामय सत्यप्रवृति जाने । पंचम पंद को सुशोभित करने वाले साधुओं के लिए कहा गया है. - Educ “ज्ञान को उजागर, सहज सुख सागर, सुगुण रत्नाकर विराग रस भय है । शरण की रीति हरे मरण को न मद करे, करण सो पीढ़ी दे चरण अनुसयो है ॥ धर्म को मंडन, भ्रम को विखंडन परम नरम होके कर्म सु लरियो है । ऐसे अहो मुनिराज, भूलोक मे बिराजमान, तिरखी बनारसी भाव वंदन करे हैं" । " मुनि कल्पचर्या तीन प्रकार ही होती हैं*। यथा 1. निर्विष्ट कल्प स्थिति • ये परिवार विशुद्ध चारित्र के पालन होते हैं इनका संहारण नहीं होता है । 2. जिन कल्प ये वन में रहकर एकाकी कठोर साधना करनेवाले मुनि होते हैं जो जिन मुद्रा के धारक होते हैं ये अपने शरीर का प्रति कर्म (सार सम्हाल, चिकित्सा आदि) भी न करते हैं न कराते हैं और सभी परिषहो व उपसर्गो को समभाव से सहन करते हैं । 3. स्थविर कल्प ये तीर्थंकर प्रभु की आज्ञानुसार संयम पालनार्थ मर्यादित वस्त्र उपकरण के धारक होते हैं। व्याधि निवारणार्थ निर्दोष कल्पनीय औषधि का सेवन करते हैं । विशेष - 1. "आदरी संयम भार, करणी करे अपार, समिति गुप्तिधार, विक्वानिवारी है । जयणा करे छ काय, सावद्य न बोले वाय, चुकाय कवाय लाय क्रिया भण्डारी है ।। ज्ञान भणे आगे याम, लेवे भगवंत नाम, धर्म जो करे काम, ममता को मारी है । कहत हैं तिलोक रिख कर्मा से टाले विष, ऐसे मुनिराज ताको वंदना हमारी है" ।। और भी कहा गया है। 3. 2. वर्तमान में दिगम्बर मुनि जिनकल्प व श्वेताम्बर मुनि स्थविर कल्प की परंपरा के प्रतीक हैं ऐसी अनेक विद्वानों की मान्यता है । संचेलक (मर्यादित वस्त्र वाले) व अचेलक (वस्त्र रहित या अल्प वस्त्र ) परम्परा का वर्णन भी इसीसे सम्बन्धित है।" दिगम्बर मुनि लिंग, जिन मुद्रा अनुरूप है तो श्वेताम्बर मुनि लिंग जिन आज्ञा अनुरूप है । 4. उपरोक्त कल्पचर्या की अपेक्षा से मुनियों के तीन प्रकार कहे गए हैं। ये सभी पंचमहाव्रत एवं पांच समिति व तीन गुप्ति के पालक होते हैं । भगवान पार्श्वनाथ के केशी कुमार आदि पांच रंगों के वस्त्र धारण करने वरले श्रमण संचेलक और भगवान महावीर के शिष्य गणधर गौतम आदि अनेक श्रमण अचेलक परम्परा के पालक थे। इससे यह स्पष्ट होता है कि श्वेताम्बर मत भगवान पार्श्वनाथ की प्रचलित संचेलक परम्परा का प्रतीक है एवं प्राचीन है । जैन मुनि के वस्त्र, मुहपत्ती आदि के धारक होने की पुष्टि प्राचीन वैदिक ग्रंथों से भी होती है । जैसे “हस्ते पात्र दधानश्य, तुण्डे वस्त्र धारकाः । मालिन्यमेव वासांसि धारयति अल्पभाषिण" | " अर्थात् हाथ में पात्र सुख पर मुखवस्त्रिका व मलिन वस्त्रों के धारक, अल्प भाषी जैन मुनि होते हैं । 5. तीर्थंकर कल्पातीन होते हैं । जिनकल्पी व कल्पातीत महात्मा अपवाद सेवन नहीं करते । स्थविर कल्पी on Inte रोमेन्द्रज्योति ज्योति 55 हेमेन्द्र ज्योति हेगेल ज्योति
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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