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________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ स्वामी दयानन्द सरस्वती अपने समय के महिमा सम्पन्न महापुरुषों में से थे। उनकी सत्य निष्ठा, विद्वता और निर्भीकता ने अपने जीवन काल में ही उन्हें महर्षि दयानन्द के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया था। एक बार बातचीत के दौरान किसी ने उन्हें 'महर्षि' कह दिया। इस पर वे कुछ क्षण मौन हो विचारों में डूब गये। उन्हें महर्षि कहने वाला व्यक्ति भी पशो-पेश में पड़ गया। सहज होते हुए स्वामी जी ने कहा-“आज आप मुझे महर्षि कह रहें हैं ? यदि मैं कपिल और कणाद के जमाने में पैदा हुआ होता तो पढ़े – लिखों में भी मेरी गणना मुष्किल से हो पाती।" फ्रान्स के प्रसिद्ध खगोल शास्त्री श्री प्येर ला प्लेंस ने अठत्तर वर्ष की आयु में मृत्यु शैया पर पड़े हुए कहा था “हम जो कुछ जानते हैं वह कुछ भी नहीं है। हम जो कुछ नहीं जानते हैं वह असीम है।" संसार में जितने भी महापुरुष हुए हैं उनमें सहज नम्रता उनका सर्वोपरि गुण रहा है। यह तभी संभव है जब मनुष्य विशाल ब्रह्माण्ड में स्थित अरबों-खरबों ग्रह-तारे नक्षत्र सहित समस्त सृष्टि के मध्य अपनी स्थिति और स्वरूप का ज्ञान प्राप्त कर लेता है। असीम विश्व और ससीम व्यक्तित्व की गवेषणा कर लेता है। ज्ञान की आराधना में साधक की भाँति लीन हो जाने पर ही जीवन और जगत के रहस्यों से पर्दे हटने लगते हैं और ज्यों ज्यों मनुष्य का ज्ञान बढ़ता जाता है त्यों त्यों उसकी ज्ञान साधना का क्षेत्र भी व्यापक, असीम होता चला जाता है। संसार की अनेक महत्वपूर्ण सभ्यतायें काल के गाल में समा गई। उनके अवशेष मात्र म्यूजियमों की शोभा बढ़ा रहें है। किन्तु महान् भारत आज भी कमोवेश अपनी सभ्यता संस्कृति को जीवित बनाये हुए है। इसकी नींव में उन महापुरुषों का श्रम तप उत्सर्ग सिंचित है जिन्होंने सभी प्रकार के प्रलोभन आकर्षण को ठुकरा कर अथाह ज्ञान साधना के लिए अपने आपको समर्पित कर दिया। उनके पद चिन्हों पर चलकर ही यह देश अपनी अस्मिता बनाये रख सकता है। जब-जब भी हम उस महान् पथ से भटके, हमें सभी प्रकार से पद दलित अपमानित और शोषित हए हैं। नये भविष्य का निर्माण, अल्पज्ञान जन्य दम्भ और लच्छेदार भाषण बाजी से नहीं होगा वरन् महाजनों येन गता स पंथा जिस मार्ग पर हमारे पूर्व महापुरुष चले हैं उन पर कदम बढ़ाने से होगा। प्रत्येक जागरूक विवेकशील व्यक्ति के लिए मार्ग प्रशस्त है। तीन वणिक पूंजी लेकर कमाने के लिये परदेश गये। उनमें एकने पूंजी से लाभ प्राप्त किया, दूसरेने पूंजी को संभाल कर रक्खी और तीसरे ने सारी पूंजी को बेपरवाही से खो दी। यह है कि पूंजी के समान मनुष्यभव है। जो उत्तम करणी करके उसके मोक्ष के निकट पहुँच जाता है या उसको प्राप्त कर लेता है वह पुरुष लाभ प्राप्त करनेवाले वणिक के सदृश है, जो स्वर्ग चला जाता है वह द्वितीय वणिक के सदृश है और जो मनुष्यभव को अपनी दुराचारिता से नर एवं पषुयोनि का अतिथि बना लेता है वह पूंजी खो देनेवाले के समान मनुष्यभव को यों ही खो देता है। अतः ऐसी करणी करना चाहिये कि जिससे स्वर्गापवर्ग की प्राप्ति हो सके। यही मानवभव पाने की सफलता है। श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. हेगेन्य ज्योति* हेमेन्य ज्योति 101 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Private
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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