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________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ ऐसे व्यक्तियों के लिए श्री सोमप्रभसूरीश्वरजी ने कहा है। शमालानं भंजन विमलमतिनाडि विघटय, किरन्दुकूपांसूत्करमगणयन्नागमसूणिम् । भमन्नुा स्वैरं विनयनय वीथि विदलय, जनः कं नानर्थ जनयति मंदाधो द्विपइव|| मिथ्या अभिमान से अंधा हुआ मनुष्य, मदोन्मत्त हाथी की तरह शांतिरूप बंधन-स्तंभ को नुकसान पहुंचाता हुआ निर्मल बुद्धि रूप रस्सी को तोडता हुआ, दुष्ट वाणी रूप धुल समूह को उड़ाता हुआ, आगम सिद्धांत शास्त्र रूप अंकुश को न मानता हुआ, पृथ्वी तल पर स्वतंत्रता पूर्वक घूमता हुआ, नम्रता और न्याय रूप मार्ग को उजाड़ता हुआ, क्या क्या अनर्थ पैदा नहीं करता है अर्थात ऐसा व्यक्ति सभी प्रकार के अनर्थों का सूत्रपात कर देता है। अल्पज्ञान से मिथ्या अभिमान पैदा होता है और यह मिथ्या अभिमान ही समस्त बुराइयों की जड़ है। इसके विपरीत पूर्ण ज्ञानी जो सर्वत्र समभाव रखते हुए,सब के कल्याण की कामना करके कहेगा मित्ति में सर्व भूएसु, वैरं मज्झन केणई। समस्त प्राणिमात्र मेरे मित्र हैं। मुझे किसी से वैर नहीं है। ज्ञान पथ पर आगे कदम बढ़ाने वाला व्यक्ति नम्रता, अविरोध, निर्वरता, अप्रतिद्वंदिता के बिना आगे नहीं बढ़ सकता। जैन प्रस्थापनाओं के अंतर्गत तो रत्नत्रय और पंचाचार की अनुपालना के बिना ज्ञान का, विद्वता का कोई महत्व ही नहीं है। आचरण की सुदृढ़ नींव पर विकसित ज्ञान ही संतुलित व्यक्तित्व का संपादन कर सकता है। ज्ञान अनंत है - उपनिषद की एक कथा प्रसिद्ध है। महर्षि भारद्वाज वृद्धावस्था के अंतिम चरण में मृत्यु शैया पर पड़े थे। उनकी पूर्व उपासना के प्रभाव से इन्द्र स्वयं उनके समक्ष प्रकट हुए और उनसे पूछा : "महर्षि भारद्वाज ! इस अंतिम समय में तुम्हारी क्या इच्छा है। भारद्वाज ने जवाब दिया - "देवराज ! मेरा वेदाध्ययन (ज्ञानाराधना) अधूरा रह गया।" इन्द्र – यदि आपको एक सौ वर्ष की आयु और मिल जाय तो आप क्या करेंगें। भारद्वाज - देवराज ! मैं वेदों के स्वाध्याय में फिर लग जाऊँगा। कथानक के अन्तगर्त देवराज इन्द्र महर्षि भारद्वाज को एक सौ वर्ष की आयु प्रदान कर देते हैं और इसी क्रम में महर्षि की उम्र पूरी हो जाती है। इन्द्र पुनः प्रकट होकर पूर्ववत् प्रश्न करते हैं और ऋषि के आग्रह पर वेदाध्ययन हेतु पुनः उन्हें सौ वर्ष की आयु प्रदान कर देते हैं। तीसरी बार भी पहले जैसी स्थिति बनती है तब इन्द्र अपनी योगमाया से तीन विशाल पर्वत खड़े कर देते हैं और प्रत्येक में से एक-एक मुठटी पदार्थ लेकर भारद्वाज से कहते हैं। इन्द्र - भारद्वाज ये तीन पर्वत वेद स्वरूप हैं। तीन मुट्ठी भर पदार्थ दिखाते हुए इन्द्र ने कहा महर्षि अभी तक तुमने इतना सा ही वेद ज्ञान प्राप्त किया है। ऋषिवर ! अनन्ता वै वेदाः वेद अनन्त है, ज्ञान का क्षेत्र अनन्त है और फिर ऋषि ने सन्तोष के साथ मृत्यु का वरण कर लिया। ज्ञान की आराधना करने वाले में धैर्य आवश्यक है और धैर्य के साथ ही नम्रता, सहजता स्वतः ही चली आती है। ज्ञानार्थी को धैर्यपूर्व ज्ञान की साधना में लगे रहना चाहिए। तभी कुछ प्राप्त हो सकता है। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 100 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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