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________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ किया जा सकता है-द्रव्यार्थिक नय या निश्चय-नय से इन पदों का अर्थ अभेदात्मक आत्मा ही है और व्यवहार नय से इनका अर्थ वे प्रक्रियायें हैं जिनसे आत्मत्व के ये गुण परिपक्व रूप में अभिव्यक्त होते हैं। उदाहरणार्थ, संयम की अभिव्यक्ति के लिए कषायों की गर्हा की जाती है। इस कथानक से यह भी प्रकट होता है कि भ. पार्श्व के समय में ये पारिभाषित शब्द प्रचलित थे। इनके परिपालन से अगार अनगारत्व की ओर अभिमुख होता है। इस कथानक से भी यह तथ्य प्रकट होता है कि पार्श्वनाथ आत्मवादी थे। इस कथानक का स्थान ग्रंथ में निर्दिष्ट नहीं है, संभवतः यह राजगिर के समीप ही हो। तुंगिया नगरी में एक बार पार्वापात्यीय स्थविर मेहिल, आनंदरक्षित, कालिकपुत्र एवं काश्यप स-संघ पधारे। वहाँ के श्रावकों को प्रसन्नता हुई और वे उनके दर्शनार्थ गये। स्थविरों ने उन्हें न केवल चातुर्याम धर्म (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह) का उपदेश दिया अपितु उन्होंने यह भी बताया कि संयम पालन से संवर होता है और तप से कर्मनिर्जरा होती है। यही नहीं, उन्होंने यह भी कहा कि पूर्वकृत कर्म, पूर्वकृत संयम, कर्मबंध (शरीरनाम कर्म) एवं आसक्ति से प्राणियों की गति निर्धारित होती है। इसका अर्थ यह है कि सराग संयम एवं सराग तप कर्मबंध में कारण होता है और आसक्ति की तीव्रता-मंदता भावी गति निर्धारक होती है। इस से यह फलित होता है कि गतियों का बंध रागावस्था में ही होता है, वीतराग अवस्था में नहीं होता। एक अन्य कथानक में कुछ पार्श्वपत्य स्थविर राजगिर में महावीर से प्रश्न करते है कि असंख्यलोक में अनन्त और परिमित रात्रि-दिवस कैसे हो सकते है? उन्होने भ. पार्श्व के उपदेषों का उल्लेख करते हुए बताया कि यह संभव है क्योंकि अनन्त कालाणु संकुचित होकर असंख्य क्षेत्र में संमाहित हो जाते हैं। इसी प्रकार, प्रत्येक जीव की अपेक्षा काल परिमित भी हो सकता है। पार्श्वनाथ के अनुसार, लोक शाश्वत, आलोक परिवृत, परिमित एवं विषिष्ट आकार के है। इसमें अनन्त और असंख्य जीव उत्पन्न और नष्ट होते हैं। वस्तुतः जीवों के कारण ही यह क्षेत्र लोक कहलाता है । भगवती के 9.32 में वाणिज्य ग्राम (वैशाली के पास ही) में पार्श्वपत्यतीय स्थविर गंगेय ने भगवान महावीर से अनेक प्रश्न किये। महावीर ने भ. पार्श्व के मत का उल्लेख करते हुए बताया कि (1) विभिन्न प्रकार के जीव सांतर एवं निरंतर उत्पन्न होते रहते है। (2) सभी जीव चार गतियों में उत्पन्न होते है। नरक गति में सात नरक होते हैं। तिर्यंचों की एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक पांच योनियां होती हैं। मनुष्य गति में समूर्च्छन एवं गर्भज योनि होती है। देवगति चार प्रकार की होती है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच और गर्भज मनुष्यों की संख्या अन्य योनियों से अल्प होती है। मनुष्यों की तुलना में देव सौ गुने और तिर्यंच एक हजार गुने होते हैं। इन उत्तरों में जीव से जीव की उत्पत्ति या सत्कार्यवाद का भी परोक्षतः किया गया है। विभिन्न गतियों में उत्पत्ति पूर्वकृत कर्मबंध की प्रकृति पर निर्भर करती है। इन कथानकों में अनेक स्थलों पर बताया गया है कि अनेक बार पार्वापत्य श्रावक एवं स्थविर चातुर्याम से पंचयाम धर्म में दीक्षित हुए और महावीर संघ की शोभा बढ़ायी । राजप्रश्नीय :- कुमार श्रमणकेशी-प्रदेशी संवाद : आत्मवाद राजप्रश्नीय सूत्र को उपांगों में गिना जाता है। उसमें केशी- प्रदेश संवाद के अन्तर्गत शरीर-भिन्न आत्मवाद तार्किक उन्नयन किया गया है। यद्यपि कुछ विद्वान इस केशी को पार्श्वपत्य केशी से भिन्न मानते है पर अधिकांश पूर्वी एवं पश्चिमी विद्वान उन्हें पार्श्वपत्य ही मानते हैं। भ. पार्श्व का युग उपनिषदों की रचना का युग था जब क्रियाकाण्ड का रूप लिया और स्वतंत्र आत्मवाद का पल्लवन किया। भ. पार्श्व ने भी आत्म-प्रवाद में वर्णित मतान्तरों के परिप्रेक्ष्य हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 80 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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