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________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ - 3 (पार्वापत्य कथानाकों के आधार पर भ. पार्श्वनाथ के उपदेश - नन्द लाल जैन, जैनों की वर्तमान चौबीसी में भ. पार्श्वनाथ तेइसवें तीर्थंकर हैं। इन्होंने काशी में विशाखा नक्षत्र में जन्म लिया और इसी नक्षत्र में संमेदाचल से निर्वाण पाया। इनका जीवन चरित्र कल्पसूत्र' चउपन्न माहापुरिस चरिउ, त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र, महापुराण और पार्श्वपुराण आदि में पाया जाता है। एक तापस के पंचाग्नि के समय सर्प की रक्षा और अपने तपस्या काल में कमठ का उपसर्ग इनके जीवन की प्रमुख घटनायें हैं। इन्होंने तीस वर्ष में दीक्षा ली, तेरासी दिनों में केवल ज्ञान पाया और सत्तर वर्ष तक धर्मोपदेश दिया। दोनो ही संप्रदायों में, महावीर चरित्र के विपर्यास में, उनका चरित्र प्रायः एक समान होते हुए भी आधुनिक दुष्टि से पूर्ण नही लगता । भला, सौ वर्ष को दो-चार पृष्ठों में कैसे समाहित किया जा सकता है। भ०पार्श्व ने अपने जीवन काल में" "पुरुष श्रेष्ठ" ऋषि और 'अर्हत' की ख्याति पाई। इससे उनकी लोकप्रियता तथा जन कल्याणी उपदेश कला का अनुमान लगता हैं। उनके संघ के साधु स्थविर और निर्ग्रथ कहलाते थे। महावीर की तुलना में उनके चतुर्विध संघ में कम-से-कम एक प्रतिशत सदस्य अधिक थे। कल्पसूत्र के अनुसार, इनके संघ में 16000 साधु, 38000 आर्यिकायें, 114000 श्राविक एवं 332000 श्राविकायें थीं। यह संख्या त्रिलोकप्रज्ञप्ति में कुछ भिन्न हैं। फिर भी, औसतन साध्वी-साधु का अनुपात 2.37 और श्रावक-श्राविका का अनुपात लगभग 3.0 आता हैं। साध्वी-साधु का अनुपात श्वेतांबर संप्रदाय में तो अब भी यही लगता हैं, पर दिगंबरों की स्थिति काफी भिन्न दिखती हैं। यह संघ निर्ग्रथ कहलाता था। महावीर को भी तो "निगंठ-नातपुत्त" कहा गया हैं। इनके लिए जैन शब्द तो 8-9वीं शती की देन हैं। इसीलिए आज कल 'निर्गंथ' पत्रिका निकली है जो भूत, प्रधान अधिक है। पार्श्वनाथ तो वर्तमान प्रधान थे। इनका मुख्य कार्य क्षेत्र तो वर्तमान विहार तथा उत्तर प्रदेश (काशी वैशाली, कपिलवस्तु, श्रावस्ती और राजगिर आदि) रहे पर उड़ीसा और बंगाल में पार्श्वपत्य सराकों की उपस्थिति उनके इन क्षेत्रों में भी प्रभाव को सूचित करती है। स्वयं महावीर और उनका वंश भी मूलतः पार्श्वापत्य था। भ. बुद्ध और उनका संबंधी भी प्रारंभ में पार्श्वापत्य ही थे। महावीर का उनके प्रति आदर भाव भी था। इसका उल्लेख उन्होंने अपने अनेक प्रश्नोंत्तरों में किया है। महावीर का पार्श्व की परंपरा का संघ, श्रुत एवं आचार प्राप्त हुआ। उन्होंने सामायिक परिस्थितियों के अनुसार उस में कुछ सं गोधन एवं परिवर्तन किये और उसे अधिक जनकल्याणी तथा वैज्ञानिक बनाया। इसीलिए वे अपने युग के नवीन तीर्थंकर बने। वर्तमान में भ. पार्श्व के उपदेशों/सिद्धान्तों से संबंधित कोई विशेष आगम ग्रंथ नहीं हैं। पर कहते हैं कि उनके उपदेशों का सार चौदह पूर्व ग्रन्थों में रहा होगा। दुर्भाग्य से, वे आज विस्मृिति के गर्भ में चले गये है। पर उनका अधिकाँश प्रवादान्त नामों से पता चलता है कि पार्श्वनाथ के समय भी महावीर के समान अनेक मत-मतान्तर रहे होंगे। इनके आधार पर ही उन्होने अपने एकीकृत उपदेश दिय होंगे। उनके उपदेशों का सार ऋषिभाषित' में मूल रूप में है पर उत्तराध्ययन, सूत्रकृत, भगवती सूत्र ज्ञाताधर्मकथा, राजप्रश्नीय," आवश्यक नियुक्ति," तथा निरयावलियाओ,” आदि के समान प्राचीन ग्रन्थों में अनेक पार्श्वपत्य स्थविरों एवं श्रमणोंपाशकों के कथानकों के रूप में यत्र-तत्र भी उपलब्ध होता है। इन ग्रन्थों का रचना काल 500-100ई.पू. के बीच माना जा सकता है। ये उपदेश (1) केशी-गौतम संवाद (2) पेंढालपुत्र उदक (3) वैश्य पुत्र कालास, स्थविर मेंहिल संघ, स्थविर गांगेय एवं अन्य पार्श्वापत्य स्थविर (4) भूता, काली आदि साध्वी (5) केशी- प्रदेशी संवाद (6) स्थविर मुनिचन्द्र, गोशालक संवाद तथा (7) सोमिल ब्राह्मण आदि के कथानकों में पाये जाते है। इन ग्रन्थों में नंदिषेण आदि स्थविर तथा सोमा, जयन्ती, विजय तथा प्रगल्भा आदि परिव्राजिकाओं के भी उल्लेख हैं। अनेक कथानकों में पार्श्वपत्य स्थविर या श्रावक महावीर के धर्म में दीक्षित तो होते हैं, पर उनमें उनके उपदेश नहीं हैं। ये सभी संवाद और कथानक वाराणसी एवं मगधक्षेत्र से संबंधित हैं। इससे यह संकेत मिलता है कि इन क्षेत्रों में पार्श्वपत्यों का महावीर काल में भी काफी प्रभाव था। इन्हें अपने पक्ष में करने के लिए महावीर को अनेक बौद्धिक एवं कूटनीतिक उपाय काम में लेने पड़े होंगे। • कुछ बौद्ध ग्रंथों में भी भ. पार्श्व और उनसे संबंधित स्थविरों के कथानक पाये जाते हैं। इन उल्लेखों तथा जैन कथाओं के आधार पर ही पार्श्व की ऐतिहासिकता तथा समय (877-777ई.पू. या 817-717 ई.पू. यदि महावीर का समय 540-468 ई.पू. माना जाय) निर्धारित किया जाता हैं। भ. पार्श्व की ऐतिहासिकता की सर्वप्रथम अभिव्यक्ति इस युग में जर्मन विद्वान हर्मन जैकोबी ने की थी । Eduction Inte हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 77 Private हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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