SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 423
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ को स्वस्थता प्रदान करने के लिए तथा आयुपर्यन्त शरीर की रक्षार्थ निर्दोष, परिमित, संतुलित एवं सात्विक भोजन ही सेवनीय होता है। वस्तुतः समस्त हिंसा के निमित्तों से रहित भोजन ही योग्य है। जैन धर्म की मान्यता है कि सूर्यास्त के पश्चात रात्रि में भोजन नहीं करना चाहिए। इसका वैज्ञानिक महत्व एवं आधार यह है कि आसपास के वातावरण में अनेक ऐसे सूक्ष्म जीवाणुं विद्यमान रहते हैं जो दिन में अर्थात सूर्य प्रकाश में उपस्थित नहीं रह पाते। जिससे भोजन दूषित, मलिन व विषमय नहीं हो पाता है। दूसरा महत्वपूर्ण सत्य यह है कि भोजन मुख से गले के मार्ग द्वारा सर्वप्रथम आमाशय में पहुंचता है जहां उसकी वास्तविक परिपाक प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। परिपाक हेतु वह भोजन आमाशय में रहता है। जब तक मनुष्य को जागृत एवं क्रियाशील रहना चाहिए क्योंकि मनुष्य की जागृत एवं क्रियाशील अवस्था में ही आमाशय की क्रिया सक्रिय रहती है जिससे भोजन के पाचन में सहयोग मिलता है। इसी आधार पर रूग्ण व्यक्ति को रात्रि काल में पथ्य न लेने की व्यवस्था चिकित्सा शास्त्र में हैं। जैन धर्म सूर्योदय से दो घड़ी तक और सूर्यास्त होने पर व्यक्ति को भोजन करने की अनुमति नहीं देता है। जैनधर्म सप्तव्यसनों (जुआ खेलना, मांसाहार करना, मदिरा (शराब) सेवन, वेश्यागमन, शिकार खेलना, (मनोरंजन हेतु मूक प्राणियों का क्रूर हनन), चोरी करना, (सफेद पोशीय अथवा साधारण रूप में) परस्त्रीगमन तथा तीन मकारों मधु (शहद), मांस और मदिरा तथा पांच उदम्बरों (पीपल, पिल्खन, वट (बढ़), गूलर, अंजीर) के त्यागने की बात करता है। क्योंकि शारीरिक तथा मानसिक दोनों दृष्टियों से ये पदार्थ-व्यसन मानव स्वभाव के सर्वथा अननुकूल है। इसके अनुसार अण्डे तथा शराब, सिगरेट आदि मादक तथा उत्तेजनात्मक पदार्थों से द्रव्य तथा भाव दोनों प्रकार की हिंसा होती है। उससे स्वास्थ्य विचार-संयम, ज्ञान, सत्य, पवित्रता, दया, क्षमा आदि समस्त दिव्यगुण समाप्त हो जाते है। व्यक्ति पतित मलिन हो जाता है। मद्य में तो अनेक जीव उत्पन्न होते हैं और मरते रहते है। समय पाकर वे जीव उस मद्य पान करने वालों के मन में मोह-मूर्छा उत्पन्न करते हैं जिससे मान अभिमान आदि कुभाव जन्म लेते हैं। वास्तव में अरवाद्य और अपेय पदार्थ आत्म तत्त्व को अपकर्ष की ओर उन्मुख करते हैं। ऐसे खान-पान से हृदय और मस्तिष्क दोनों ही प्रभावित होते हैं। फलस्वरूप स्मृति-स्खलन तथा अशुचि एवं तामसीवृत्तियां उत्पन्न होती है। उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि जैनधर्म विश्व के समस्त जीवों के लिए कल्याण का मार्ग प्रशस्त करता है। यह धर्म किसी विशेष जाति, संप्रदाय आदि का धर्म नहीं है वरन् यह अंतर राष्ट्रीय सार्वभौमिक तथा लोक प्रिय धर्म है। इस संदर्भ में मुर्धन्य चिंतक सर्वपल्ली डॉ. राधाकश्णन का यह कथन संगत एवं सार्थक है कि जैन दर्शन सर्वसाधारण को प्रोहित के समान धार्मिक अधिकार प्रदान करता है। प्राणिमात्र का धर्म होने के फलस्वरूप जैन धर्म को अनियतिवाद अर्थात कर्मवाद, अहिंसा, स्याद्वाद, समन्वय, सह अस्तित्व, सहिष्णु तथा सर्वोदय आदि नामों से संबोधित किया जा सकता है। इसके सारे सिद्धांत पूर्वाग्रह से सर्वथा मुक्त है। यह धर्म प्रत्येक के लिए ग्राह्य एवं उपादेय है। वास्तव में जैन धर्म जीओ और जीने दो का मार्ग प्रशस्त कर संपूर्ण मानव जाति को आपस में असम्पीड़ित करते हुए रहने की एवं स्वतंत्र जीवन की शिक्षा का प्रचार प्रसार करता है। यह स्वतंत्रता मात्र कागजों पर लिखा एक दस्तावेज नहीं है अपितु यह व्यावहारिक जीवन से सम्पृक्त है। स्वतंत्रता के द्वारा ही जीवन कषायों अर्थात क्रोधादि मानसिक आवेगों से मुक्त होता हुआ आध्यात्मिकता की ओर अग्रसर रहता है अर्थात् भोग से हटकर योग की दिशा में प्रविष्ट होता है। जैन धर्म प्रवृत्ति परक न होकर निवृत्ति परक होने के कारण जीवन के लक्ष्य को भोग की अपेक्षा त्याग, बंधन की अपेक्षा मोक्ष की ओर प्रेरित होने का संदेश देता है। निश्चय ही इस योग के द्वारा संसारी जीव अपना विकास करता हुआ अर्थात् संपूर्ण बंधनों को काटता हुआ सिद्धांत को प्राप्त होता है। वास्तव में यह सिद्धावस्था या मुक्तावस्था एक सर्वोत्तम रूप है स्वतंत्रता का। निष्कर्षतः यह कथन अत्युक्ति पूर्ण न होगा कि विश्व की तमाम धार्मिक मान्यताओं में भारतीय धर्म मान्यता और इसमें भी जैनधर्म की मान्यता का एक विशिष्ट स्थान है। इसका मूलकारण है कि जैनधर्म की मान्यता का विशिष्ट स्थान है। इसका मूलकारण है कि जैनधर्म त्याग-तप और भक्ति मुक्ति के साथ साथ शाश्वत सुख आनन्द हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 75 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति TFORPrivate&Pere
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy