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________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ है, इसने रोगी को मार दिया। डॉक्टर की सर्वत्र बदनामी होती है। सामान्य जनता की दृष्टि से वह डॉक्टर हत्यारा है किन्तु ज्ञानी उसे हत्यारा नहीं मानते। डॉक्टर के द्वारा द्रव्य हिंसा होने पर भी भावहिंसा नहीं थी । वह अपनी ओर से रूग्ण व्यक्ति को स्वस्थ बनाने का प्रयास कर रहा था इसलिए द्रव्य हिंसा होने पर भी भाव हिंसा नहीं है। तुलनात्मक दृष्टि से जब हम प्रश्न पर चिन्तन करते है तो सूर्य के प्रकाश की भांति यह स्पष्ट परिज्ञात होता है कि कहीं पर भाव हिंसा भी नहीं होती। इस चतुर्भंगी के द्वारा ज्ञानियों ने यह स्पष्ट किया है कि कहीं पर बाह्य हिंसा होते हुए भी मानव अहिंसक है तो कहीं पर बाह्य दृष्टि से अहिंसक दिखलाई देने पर वह हिंसक है। अहिंसा अव्यवहारिक नहीं है अपितु जीवन में भव्य - भावना को जागृत करती है। यदि जीवन काषायिक वृत्तियों से मुक्त बन जाए तो जीवन का कायाकल्प हो जाए। जीवन में जितनी हिंसावृत्ति कम होगी उतना ही जीवन पवित्र और निर्मल होगा। किसी को कष्ट न पहुँचाना, सभी को सुख और शान्ति पहुँचाना अहिंसा है। अहिंसा के दो प्रकार हैं- अनुग्रहरूप अहिंसा और दूसरा निग्रहरूप अहिंसा । यहाँ पर यह सहज ही जिज्ञासा हो सकती है कि अनुग्रह अहिंसा की बात तो समझ में आती है पर निग्रह अहिंसा कैसे ? उसमें तो दण्ड आदि दिया जाता है। उत्तर में निवेदन है अहिंसा का सम्बन्ध भावना से है। आचार्य धर्म संघ का पिता है। वह अपने शिष्यों को साधना के महामार्ग पर बढ़ने के लिए उत्प्रेरित करता है। प्रेम के साथ वह मार्गदर्शन देता है। यदि कोई साधक मर्यादा का अतिक्रमण करता है तो वह उसे सचेत करता है यदि वह आचार्य के द्वारा सचेत किये जाने पर भी स्खलनाओं से मुक्त नहीं होता तो आचार्य उस साधक को दण्ड भी देता है। उसका दण्ड देना हिंसा नहीं है क्योंकि आचार्य के अन्तर्मानस में उस साधक के प्रति अपार स्नेह है। आचार्य के द्वारा दिया गया दण्ड हिंसा न होने का कारण है कि आचार्य में द्वेष नहीं होता है अपितु आत्मशुद्धि की भावना है जब तक साधक दोषों की शुद्धि नहीं करता तब तक उसका विकास नहीं हो सकता। निग्रहरूप अहिंसा साधक को महानता के शिखर पर पहुँचाती है। निग्रहरूप अहिंसा को हम जरा और अधिक स्पष्ट करें निग्रह का अर्थ दण्ड है। वह दण्ड हिंसा है एक गृहस्थ साधक ने श्रावक के बारह व्रत ग्रहण किये है। वह राजा है। उसके राज्य पर किसी अन्य राजा ने आक्रमण कर दिया है। उस समय व्रतधारी श्रावक राजा क्या करें ? क्या वह अपना कर्तव्य समझकर अत्याचारी आक्रमण का सामना करता है और देश पर हो रहे अत्याचारों को मिटाता है। इस कार्य में हिंसा होती है पर उस हिंसा के पीछे अत्याचार को रोकना मुख्य है अत्याचारी का प्रतिकार करने के लिए उसे हिंसा करनी पड़ती है। जैसे मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने रावण को यह संदेश भी भेजा था कि वह समझौता कर ले पर जब रावण तैयार नहीं हुआ तो अन्याय, अत्याचार और बलात्कार के प्रतिकार के लिए उनहें युद्ध करना पड़ा। राम जनते थे कि यह एक सीता का प्रश्न नहीं है किन्तु हजारों सीताओं का प्रश्न है। यदि सिर नीचा कर इस अत्याचार को सहन कर लिया तो भविष्य में सतियों का सतीत्व सुरक्षित नहीं रह सकेगा। इसलिए उन्होंने युद्ध किया था। रावण ने राम को यह संदेश भेजा कि आप एक सीता को छोड़ दें। सीता के बदले में अनेक सुन्दरियाँ मैं आपको समर्पित करूँगा। किन्तु राम ने रावण के प्रस्तुत प्रस्ताव को ठुकरा दिया। उनके सामने भोग का प्रश्न नहीं किन्तु कर्तव्य का प्रश्न था और वे कर्तव्य के प्रश्न से उत्प्रेरित होकर ही युद्ध करने के लिए प्रस्तुत हुए थे। कर्मयोगी श्रीकृष्ण ने भी महाभाररत को टालने का अथक प्रयास किया। वे शान्तिदूत बनकर दुर्योधन की राज सभा में पहुँचे। साधारण से साधारण व्यक्ति भी इस कार्य को करने के लिए कतराता है वह कार्य श्रीकृष्ण जैसे उत्तम पुरुष ने बिना संकोच करना स्वीकार किया। श्रीकृष्ण ने दुर्योधन की राजसभा में कहा- "मैं रक्त की नदी हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 15 51 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति www.lak felbrary.
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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