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________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ को जलाने के लिए जाती है पर दूसरों का वह विनाश करे या न करें, पर जिसके मन में ये दुर्भावना उत्पन्न होती हैं, उत्पन्न होते ही वह उस आत्मा का तो पतन कर ही देती है भाव हिंसा हमारे सद्गुणों को जलाकर नष्ट कर देती हैं। वह ऐसी ही अग्नि है। पहले भाव हिंसा होती है उसके पश्चात् द्रव्य हिंसा । यदि द्रव्य हिंसा किसी कारणवश न भी हो तो भी भाव हिंसा तो हो ही जाती है। यही कारण है कि भारत के तत्वदर्शियों ने भाव हिंसा पर चिन्तन करते हुए कहा है कि यह हिंसा सबसे अधिक खतरनाक है। यह हमारे जीवन का पतन करती है यह वह घुन है जो हमारी साधना को खोखला कर देती है। यह द्रव्यहिंसा की जननी है। यदि माँ नहीं हो तो बेटी नहीं हो सकती। भावहिंसा के बिना द्रव्यहिंसा कदापि सम्भव नहीं । भावहिंसा और द्रव्यहिंसा को समझाने के लिए हमारे पुराने सन्त एक उदाहरण देते हैं। एक रूग्ण व्यक्ति किसी डॉक्टर के पास पहुँचा। उसका चेहरा मुर्झाया हुआ था उसकी शारीरिक भाव भंगिमा से यह स्पष्ट हो रहा है कि उसके जीवन में निराशा का साम्राज्य है। उस रूग्ण व्यक्ति ने चिकित्सक के हाथ में पचास हजार के नोट थमाते हुए कहा यदि मैं आपकी चिकित्सा से स्वस्थ हो गया तो पच्चीस हजार के नोट आपको दूँगा और यदि मैं मर गया तो आप ये पचास हजार के नोट अपने पास रख लीजियेगा । चिकित्सक ने सोचा कि यह रोगी जीवित रहेगा तो मुझे सिर्फ पच्चीस हजार की राशि मिलेगी और यदि मर गया तो पचास हजार की राशि मिलेगी। उसने रूग्ण व्यक्ति को पॉयजन का इन्जेक्शन लगा दिया और पीने के लिए भी जहरयुक्त दवा दी। उस रोगी के रोग को नष्ट करने के लिए पॉयाजन की ही आवश्यकता थी । "विशस्यविशयमोषधम् के अनुसार वह रुग्ण व्यक्ति पूर्ण स्वस्थ हो गया वह चिकित्सक की मुक्त कंठ से प्रशंसा करने लगा। धन्य है आपकी बुद्धि को धन्य हैं आपकी चिकित्सा पद्धति को जिससे में एक दिन में स्वस्थ हो गया। रुग्ण व्यक्ति ने पच्चीस हजार चिकित्सक को दिये और उसकी प्रशंसा करता हुआ चल दिया। प्रस्तुत उदाहरण से यह स्पष्ट होता है कि चिकित्सक ने रुग्ण व्यक्ति की हिंसा नहीं की पर उसकी भावना रूग्ण व्यक्ति को मारने की ही थी। भाव हिंसा होने पर भी द्रव्य हिंसा नहीं हुई सामान्य व्यक्तियों की दृष्टि से डॉक्टर सही है पर अनन्तज्ञानियों की दृष्टि से डॉक्टर हिंसक है। उससे द्रव्य हिंसा नहीं हुई किन्तु भावहिंसा अवश्य हुई। रोगी स्वस्थ हो गया। परन्तु डॉक्टर को तो हत्या का पाप लग ही गया। डॉक्टर के मन में हिंसा की भावना पैदा हुई जिसके फलस्वरूप वह हिंसा के पाप का भागी बना भले ही डॉक्टर रोगी को न मार सका किन्तु इस दुर्भावना के कारण अपने आप को मार ही दिया। वह अपने कर्तव्य से पतित हो गया। उसने अपने गुणों का नाश किया। एतदर्थ ही महापुरुषों ने हमें यह सन्देश दिया कि भाव हिंसा से तुम सदैव बचो किसी का जन्म और मरण तुम्हारे हाथ में नहीं है तथापि तुम व्यर्थ किसी को मारने की दुर्भावना क्यों रखते हो? हिंसा तभी होती है जब अन्तर्मानस में क्रोध के भाव पनप रहें हों, अहंकार का सर्प फुत्कार मार रहा हो, माया और लोभ के विषैले कीटाणु पनप रहें हों, रागद्वेष और घृणा के दुर्भाव आ रहे हों। यही प्रमत्त योग है। इसी से व्यक्ति अन्य प्राणियों को सताता है, उन्हें कष्ट देता है। इस प्रकार हिंसा का मूल आधार कषाय भाव है। कषाय के अभाव में द्रव्य हिंसा हो सकती है पर भावहिंसा नहीं। | हमारे गुरुजन द्रव्य हिंसा को समझाने के लिए भी रूपक की भाषा में कहते है एक व्यक्ति बहुत अधिक रूग्ण हे । वह एक बार डॉक्टर के पास पहुँचा। डॉक्टर ने परीक्षण के पश्चात् उसे कहा तुम्हारे पेट में ग्रन्थि है। उसका ऑपरेशन करना होगा। ग्रन्थि बहुत ही खतरनाक है, मेरा यही प्रयास रहेगा कि तुम सदा के लिए स्वस्थ हो जाओ। डॉक्टर ऑपरेशन करता है, उससे अन्तर्मानस में करुणा का सागर लहलहा रहा है। वह जी जान से यह प्रयास करता है कि रोगी ठीक हो जाये, पर ऑपरेशन के दौरान ही रोगी ने सदा के लिए आँखें मूंद लीं । रुग्ण व्यक्ति की मृत्यु हो जाने पर उसके सारे अभिभावक उत्तेजित हो गए। वे कहने लगे कि यह डॉक्टर हत्यारा हेमेन्द्र ज्योति हमे ज्योति 50 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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