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________________ 77 77 श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ यह कथन यथार्थ है कि 'घट' एक वस्तु है। 'घट' है इसलिए उसका अस्तित्व है। किंतु वह पट आदि नहीं है यही वास्तविकता है जब हम घट के 'अस्तित्व' को उसकी सत्ता को स्वीकार करते हैं तब उसका स्पष्ट रूप से यह तात्पर्य होता है कि घट स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव की अपेक्षा से है पर द्रव्य, पर क्षेत्र, पर काल | और पर भाव की अपेक्षा से नहीं हैं। यहाँ पर स्वद्रव्य आदि का आशय इस प्रकार से समझना चाहिए। 'स्व' का अर्थ होता है अपना 'पर' का अर्थ होता है दूसरा यानि अपने से अलग द्रव्य का अर्थ होता है पदार्थ, क्षेत्र का अर्थ होता है स्थान, काल का अर्थ होता है समय और भाव का अर्थ होता है उपस्थिति, विद्यमानता । घट हमारे सामने विद्यमान है। यह उसका भाव है वर्तमान में, इसी क्षण में हमारे सामने घट विद्यमान है। यह हुआ घट का काल भाव इसी स्थान पर जहां हम खड़े हैं, बैठे हैं, घट को सामने रखा देख रहे हैं। घट की उपस्थिति होना उसका क्षेत्र काल विद्यमान है। सामने रखा वह घट यदि मिट्टी का है तो 'मिट्टी' उसका द्रव्य हुआ। इस तरह यह चारों द्रव्य, क्षेत्र और भाव, घट के स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल, और स्वभाव कहे जायेंगें। यह स्पष्ट ही है। इसी आधार पर हम कहेंगे 1. यह घट मिट्टी का है, सोना, चांदी, पीतल, लोहा, आदि का नहीं है। 2. यह मिट्टी का घड़ा इस प्याऊ में रखा है। 3. प्याऊ में, यह मिट्टी का घड़ा, वर्तमान में रखा है, कल नहीं रखा था। संध्या को फिर इस प्याऊ में नहीं रखा होगा। 4. इस समय, प्याऊ में मिट्टी का घड़ा है। फूट जाने पर यह घड़ा नहीं होगा। बनने से पहले भी नहीं होगा। 77 इन चारों प्रकारों से यह भली भांति सिद्ध हो जाता है कि 1. प्याऊ में रखा मिट्टी का घट 'घट' ही है, पट आदि नहीं है। 2. यह घट जिसकी ओर हमारा संकेत है वह प्याऊ में रखा घट ही है न की प्याऊ में रखा अन्य मिट्टी का घट । 3. साथ ही इस समय प्याऊ में जो घट रखा है, उसी की ओर हमारा आशय है न कि उसे उठाकर कोई दूसरा मिट्टी का घट प्याऊ में रख दिया जाय, उस घट से। 4. बल्कि जो मिट्टी का घट अभी रखा है वही हमारे आशय का केन्द्र है न कि उसके फूट जाने पर, वहां पडी रहने वाली खर्परियां हमारे आशय का केंद्र बन सकेगी। इस तरह यह बाद की चार विवक्षाएँ यह सिद्ध कर देती हैं कि मिट्टी का सामने रखा घट 'पट' आदि नहीं है। इसको हम पर द्रव्य, पर क्षेत्र, पर-काल और पर-भाव कहते हैं जिनकी अपेक्षा से वस्तु तत्व में नास्तित्व सिद्ध किया जाता है। इस तरह पदार्थ को मूलतः दो प्रकार के प्रश्नोत्तरों से जाना जा सकता है जिन्हें हम कहेंगें 1 1. 2. यह वस्तु क्या है ? यानी वस्तु अर्थात् पदार्थ में जो-जो गुण, धर्म, पर्याय आदि है, उन सबका स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और गुण पर्याय के सहयोग से बोध कर सकते हैं। इस प्रश्नोत्तर द्वारा पदार्थ में जो-जो धर्म, गुण, पर्याय आदि है, उन का क्रमशः समग्र बोध हो जाता है। जब निषेधात्मक प्रश्नोत्तर होगें, तब वह वस्तु जिस-जिस वस्तु स्वरूप नहीं है, उन समस्त वस्तुओं के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावों और गुण, पर्यायों का एक-एक कर के निषेध करते-करते, जो शेष स्वरूप बचता है, वहीं स्वरूप, उस वस्तु का माना जाता है और आधार पर यह स्पष्टतः माना गया है। मूलतः भंग दो हैं । एक 'अस्ति' और दूसरा 'नास्ति' है। ये दो 'भंग' मूलभूत हैं मुख्य है। उक्त दोनों भंगों से पदार्थ की जो व्याख्या क्रम-क्रम से की जाती है या उस का बोध क्रम-क्रम से किया जाता है। उस क्रमिक बोध व्याख्या को, यदि युगपत अर्थात एक साथ कहने का प्रश्न उद्बुद्ध हो तो यही उत्तर देना उचित होगा कि इन 'आस्ति नास्ति की स्थितियों का कथन, युगपत किया जाना इस समर्थता की अपेक्षा से तीसरा भंग 'अवक्तव्य' जन्म लेता है जिसका अर्थ होता है न कि बोध की असमर्थता है। संभव नहीं होता। अतएव प्रतिपादन की असमर्थता, इन तीनों भंगों को परस्पर मिलाते रहने पर अधिकतम सात ऐसे भंग बनते हैं, जिन में इन का मिश्रण पुनरावर्तन का द्योतक नहीं बन पाता। इसलिये इन्हें 'सप्तभंगी' कहा जाता है" ये सातों भंग इस प्रकार है। हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 42 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति saneloors
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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