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________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ सहस्र किरण दिनकर की महत्ता का श्रेय उसके रथ और सारथी को मिलता है। सूर्य का सारथी अरूण, अपने कुशल रथ चालन द्वारा, प्रतिदिन एक ही रीति से उसे अनंत आकाश के एक छोर से दूसरे छोर तक घुमाता रहता है। यदि अरुण रथ संचालन की दिशा कभी पूर्व से पश्चिम की ओर, कभी पश्चिम से दक्षिण की ओर, फिर उत्तर की ओर कर दे तो सूर्य की सारी महत्ता विनष्ट होने में देर न लगे या फिर उसके रथ जुते घोड़े बेलगाम होकर दौड़ना आरंभ कर दे या कभी न चलने की जिद ठान ले तो जो स्थिति सूर्य की बनेगी, वही स्थिति स्याद्वाद और सप्तभंगी द्वारा बगावत कर देने पर अनेकांत सिद्धांत की बन जायेगी। इसीलिए सूर्य की महिमा और महत्ता का जितना गुणगान है उससे कम अरुण का, उसकी अरुणिमा का नहीं है अपितु सूर्य की महिमा के गान से पहले अरुणिमा का, उषा का गुणगान करने की एक परम्परा सी बन गई है। इस परम्परा में उषा के महत्व और उसकी उपयोगिता का मूल्यांकन इतना बडा-चढ़ा दिया कि मानव समूह में उषा का, अरुणिमा का महत्व वर्णन, सूर्य की अपेक्षा अधिक मात्रा में हुआ। यही स्थिति 'अनेकांत' और 'स्याद्वाद' के विषय में कही जा सकती है। वस्तु तत्व के स्वरूप को प्रकाशित करने में, उसे उजागर करने में, संपूर्ण दायित्व अनेकांत निभाता है। किंतु अनेकांत की इस दायित्वपूर्ण महिमा का गुणगान 'स्याद्वाद' के द्वारा किया जाता है इसलिए अनेकांत के पूर्व स्याद्वाद को अधिक महत्व प्राप्त हुआ है। वास्तविकता यह है कि जब कोई भी जीव जगत के वस्तु समूह का बोध करने चलता है तब उसे उन वस्तुओं के समग्र एवं अखण्ड ज्ञान के लिए 'अनेकांत उपयोगी प्रतीत होता है स्याद्वाद की आवश्यकता तो तब पड़ती है जब वस्तु तत्व का यथार्थ रूपेण ज्ञान हो जाने के पश्चात उन ज्ञात वस्तु स्वरूपों का प्रतिपादन, दूसरों को यथार्थ बोध कराने के लिए करना होता है। इस प्रतिपादन के लिए जो पद्धति अपनायी जाती है उसीको 'स्याद्वाद' कहा जाता है। इस विवेचन के प्रकाश में एक महत्वपूर्ण तथ्य अति स्पष्ट हो जाता है कि 'स्याद्वाद' में आया 'स्यात्' शब्द एक ओर तो वस्तु मात्र में विद्यमान अनेक गुणों, धर्मों और अनंत पर्यायों की अपेक्षा - विशेष का बोधक बन कर अनेकांत का द्योतन करता है तो दूसरी ओर वस्तु समूह की व्याख्या एवं विवेचना के प्रसंग में, उन सारे धर्म-गुण- पर्यायों की अपेक्षित विवक्षाओं का वचाक बन जाता है" स्यात शब्द के इन दोनों आशयों को संलक्षय कर इन के इन आशयगत प्रयोगों को इस प्रकार स्पष्ट किया गया जो 'निपात' शब्द होते हैं, उनमें द्योतकता तो होती ही है, वाचकता भी होती है" । 'स्यात्' शब्द यद्यपि लिङ्न्त प्रतिरूपक निपात है। इसलिये यह विधि विचार आदि अर्थों में प्रयुक्त होता है" । किन्तु जैन संबंध में विवक्षाओं की अपेक्षा से इसे 'अनेकांत अर्थ का द्योतक माना जाता है"। इसी आधार पर जैन दर्शन में इसको रूद्र मान लिया गया है इसका यह आशय नहीं है कि इसका अन्य अर्थों में उपयोग हुआ ही नहीं, अपितु सामान्यतः स्यात' शब्द का जो 'संशय अर्थ लिया जाता है उस संशयात्मक अर्थ में इसे कुछ स्थानों में प्रयुक्त देखा गया है। किन्तु इसका जो रूढ़ अर्थ भिन्न-भिन्न विवेक्षाओं को लेकर स्वीकार किया गया है। उसी के आधार पर 'स्याद्वाद' का यह अर्थ किया जाता है जिस सिद्धांत का वाचक स्यात् शब्द हो वह सिद्धांत स्याद्वाद' है अथवा जिस सिद्धांत का प्रतिवादन, विवक्षाओं के आधार पर किया जाता है वह सिद्धांत 'स्याद्वाद' है" इसी व्याख्या के आधार पर 'स्याद्वाद' का प्रयोग 'अनेकांत के समानार्थक एवं पर्याय वाची शब्द के रूप में प्रयुक्त हुआ है। | 1 इसका परिणाम यह हुआ कि अनेकांतवाद क्या है ? यह एक प्रश्न पूछे जाने पर स्पष्टतः उत्तर दिया जा सकता है, 'अनेकांत' सिद्धांत है और इस की विवेचन पद्धति को स्याद्वाद कहा जाता है निष्कर्ष यह है कि 'अनेकांत' को प्रतिपाद्य और 'स्याद्वाद' को प्रतिपादक कहा जा सकता है। इन दोनों का यही परस्पर संबंध है। जो इन दोनों के बीच के भेद को सुस्पष्ट ही कर देता है। 'स्याद्वाद' के इन दोनों अर्थों को लक्ष्य करके इस ओर ध्यान जाना नितांत स्वाभाविक है कि 'स्यात्' शब्द का और 'विवक्षा' शब्द का आशय क्या है ? जब तक यह अति स्पष्ट रूप से समझ में नहीं आयेगा तब तक न तो 'स्याद्वाद' को समझा जा सकता है और 'अनेकांत' को भी सम्यक् रूप से नहीं समझा जा सकता। वस्तु मात्र में अनंत गुण, अनंत धर्म और अनंत पर्याय आदि विद्यमान है। यह सिद्धांत अनेकांत है। अतएव पदार्थ में रहने वाले समस्त धर्मों, गुणों और पर्यायों में परस्पर विरोध देखने पर यह विचारणीय प्रश्न उठता है कि ये विरोधी धर्म, एक ही पदार्थ का स्वरूप कैसे हो सकते है ? इस तरह के प्रश्न किसी भी पदार्थ के बारे में अधिकतम सात हो सकते हैं। इसलिए इन सातों प्रश्नों के जो उत्तर दिये गये हैं उन में प्रत्येक उत्तर में 'स्यात्' शब्द का प्रयोग अनिवार्य रूप से किया जाता है। इस सात प्रकार से स्थात शब्द के प्रयोग का नाम 'सप्तभंगी दिया गया है । जिसका स्पष्टतः अभिप्राय होता है सात प्रकार की विवक्षाओं के अनुरूप 'स्यात्' शब्द का प्रयोग है। Education Inta हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 41 Private हेमेन्द्र ज्योति ज्योति
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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