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________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ पुनर्जन्म सम्बन्धी मिथ्या मान्यता और धान्ति : पूर्वजन्म के प्रति यह विवेकमूढ़ता और मिथ्या मान्यता है कि लोग दुखग्रस्त या आर्थिक दृष्टि से स्वेच्छा से निर्धन को पिछले जन्म का पापी और वर्तमान में सुविधासज्जित, आडम्बरपरायण, धनकुबेरों या सत्ताधीशों को विगत जन्म का पुण्यात्मा मान बैठते हैं। ये मापदण्ड मिथ्या है। इन मापदण्डों से तो श्रीराम, भगवान महावीर तथागत बुद्ध, त्यागी साधु साध्वी, सन्यासी, स्वामी विवेकानन्द, महात्मा गांधी, सन्त विनोबा आदि अत्याचारी, भोगी-विलासी, धनपति या सत्ताधीश महान् पुण्यात्मा सिद्ध होंगे। परन्तु कोई भी धर्म, दर्शन या विचारशील मत इसे मानने को तैयार न होगा। पुनर्जन्म के सिद्धान्त की दार्शनिक पृष्ठभूमि : अतः पुनर्जन्म के सिद्धान्त की उपयोगिता और अनिवार्यता को तथा जन्म-जन्मान्तर से चले आने वाले कर्मप्रवाह को तथा कर्मफल के अटूट क्रम को समझने की आवश्यकता है। इसे भलीभांति हृदयंगम करने पर ही जीवन की दिशा धारा निर्धारित करने और मोड़ने में सफलता मिल सकती है। अपनी आन्तरिक दुर्बलताओं और विकृतियों को अपनी ही शूल से चुभे कांटे समझकर धैर्यपूर्वक निकालना और घावों को भरना चाहिए। अपने जीवन में त्याग, तप, संयम, संवर, तथा क्षमादि दस धर्मों को अपनी अमूल्य उपलब्धि मानकर उन्हें संरक्षित ही नहीं, परिवर्द्धित करने का अभ्यास सतत जारी रखना चाहिए। रत्नत्रय की साधना के पथ पर बढ़ते रहा जाए तो उसके सुपरिणाम इस जन्म में नहीं तो अगले जीवन में भी मिलते हैं, इस तथ्य को मन-मस्तिष्क में जमा लिया जाए तो आत्मिक विकास में कदापि आलस्य प्रमाद की मनोवृत्ति पनप नहीं पाएगी। विलम्ब से भी श्रेष्ठता की दिशा में उठाया गया कदम कभी निराशोत्पादक नहीं होगा। कर्ममुक्ति की साधना में रत्तीभर भी लापरवाही, हानिकारक सिद्ध होगी। अशुद्धि और गलती को तुरन्त सुधारना आवश्यक होगा। पुनर्जन्म के विश्वासी में यह भावना कदापि नहीं आनी चाहिए कि इतना तो सत्कर्म कर लिया, अब शेष जीवन में मनमानी मौज कर लें, सांसारिक सुखभोग कर लें। पुनर्जन्म की वास्तविकता को समझने वाला अन्तिम क्षण तक श्रेयस्पथ पर चलता रहेगा। अब तो थोड़े दिनों का जीना है, या चाहे जैसे दिन काटने हैं, स्वाध्याय-साधना, संयम-उपासना, ज्ञानादि साधना एवं सेवा का पथ अपनाकर क्या होगा? ऐसी भावना पुनर्जन्म पर सच्ची आस्था रखने वाले में नहीं आ सकती। उसके लिए तो जीवन का प्रत्येक क्षण एवं प्रत्येक सत्कार्य महत्वपूर्ण है, क्योंकि कर्म और कर्मफल में उसकी अटूट आस्था रहती है। सच्चा पुनर्जन्म विश्वासी अपने भीतर विराजमान आत्मदेव को मानने और उसी का सम्यक् विकास करने में दत्तचित्त रहता है, कर्मों के बन्धन से आत्मा को मुक्त करने का चिन्तन करता है। यही पुनर्जन्म सिद्धान्त की दार्शनिक पृष्ठभूमि और नैतिक आध यात्मिक प्रेरणा है। उन्नति पथ पर चढ़ने की आशा अमीर और गरीब सब को रहती है। जो व्यक्ति सशक्त हो देवांशी गुणों को अपने हृदय में धारण करके शनैः शनैः चढ़ने के लिये कटिबद्ध रहता है वह उस पर जा बैठता है और जो खाली विचारग्रस्त रहता है वह पीछे ही रह जाता है। आगे बढ़ना यह पुरुषार्थ पर निर्भर है। पुरुषार्थ वही व्यक्ति कर सकता है जो आत्मबल पर खड़ा रहना जानता है। दूसरों के भरोसे कार्य करनेवाला पुरुष उन्नति पथ पर चढ़ने का अधिकारी नहीं है। उसे तो अंत में गिरना ही पड़ता है। श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. हेमेन्द ज्योति हेमेन्ह ज्योति 27 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति FOLPrinteritamat DEThankhala
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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