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________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ पंचम आक्षेपः पुनर्जन्म की मान्यता अवैज्ञानिक : यह भी एक आक्षेप है – पुनर्जन्म को न मानने वालों का। इस विषय में उनका तर्क है कि "इस जन्म में कृत कर्मों का फल अगले जन्म में भोगना पड़ता है। इसका अर्थ यह हुआ कि “देवदत्त के वर्तमान कर्मों का फल यज्ञदत्त को अगले जन्म में भोगना पडेगा। परन्तु यह आक्षेप भी निराधार है और जैन कर्म विज्ञान के रहस्य को न समझने के कारण किया गया है। जैन कर्म विज्ञान के अनुसार जिस जीव (आत्मा) ने इस जन्म में कर्म किये हैं, वही आत्मा जन्मान्तर में उन कर्मों का फल भोगती है, दूसरी नहीं। यह आक्षेप तभी यथार्थ समझा जाता, जब इस जन्म की, अगले जन्म की और जन्मान्तर की आत्मा अलग अलग हो। किन्तु आत्मा कभी विनष्ट नहीं होती। इस जन्म की और जन्मान्तर की आत्मा एक ही रहती है। कृत कर्मानुसार उसकी पर्याय बदलती है। अतः इस अयथार्थ आक्षेप का निराकरण हो जाता है। पुनर्जन्म सिद्धान्त स्वकृत कर्म और पुरुषार्थ का प्रतिपादक : पूर्वजन्म के संबंध में भी आज कुछ भ्रान्तियाँ, अन्धविश्वास और मिथ्या धारणाऐं लोगों के दिल-दिमाग में जमी हुई हैं। जो पुनर्जन्म का सिद्धान्त स्वकृत कर्म और पुरुषार्थ की महत्ता का प्रतिपादक था, वह आज अन्धनियतिवाद, निष्क्रियवाद एवं चमत्कारवाद का प्रतीक बन गया है। पुनर्जन्म को न मानने वाले अधिकांश लोग प्रारब्ध या आकस्मिक विशेषता को पूर्वकृत कर्मफल न मानकर अकारण या व्यवस्थाविहीन चामत्कारिक मानते हैं। यों देखा जाए तो पुनर्जन्म सिद्धान्त में प्रारब्ध (पूर्वकृत) कर्म का अपना विशेष महत्व है। परन्तु प्रारब्ध किसी चमत्कार का परिणाम नहीं, और न ही उसके फल में परिवर्तन सर्वथा असम्भव है। इन विलक्षणताओं का कारण पूर्वजन्मकृत कर्म ही है : निःसन्देह ऐसे लोगों की कमी नहीं, जिन्हें जन्म से ही अनेक विलक्षणताऐं प्राप्त होती है, या जो प्रचलित लोकप्रवाह से अप्रभावित तथा अपनी ही विशेषता से प्रतिभासित देखे जा सकते हैं। इन और ऐसी ही विशेषताओं का कारण भी देवी चमत्कार नहीं, अपितु पिछले जन्म या जन्मों में वैसे विकास हेतु उनके स्वयं के द्वारा कृत कर्म क्षय का या शुभ कर्म आयोजन का पुरुषार्थ होता है। पुनर्जन्म सिद्धांत का आधार : वस्तुतः पूर्वजन्म में कृतकर्मक्षय या शुभ कर्म के फलस्वरूप उपलब्ध शुभ या शुद्ध परिणाम संस्कार और स्वभाव ही कार्मण शरीर के रूप में परिणत होकर अगले जन्म में संस्कार रूप में साथ रहते हैं, साधन सामग्रियों या सुविधाएं नहीं। कर्मयोगी श्रीकृष्ण के विकास में जन्म काल और बाल्यकाल में कई विघ्न बाधाएं, विपत्तियां, संकट की घनघटाएं घिरी हुई थीं, किन्तु पूर्व जन्म कृत शुभकर्मों की प्रबलता के कारण उनमें साहस, शौर्य, उत्साह, कर्मयोग आदि गुणों का स्वतः विकास होने लगा और वे अपने पुरुषार्थ के बल पर आगे बढ़ते गए। अयोध्या की राजकीय सुख सुविधाएं श्रीराम को रावण विजय में रंचमात्र भी सहयोग न दे सकीं। भगवान महावीर या तथागत बुद्ध के विकास में उनका राजकीय ऐश्वर्य या धन कोई भी सहायता नहीं कर सका। इन सब महान् आत्माओं के व्यक्तित्व की वास्तविक विशेषताएं पूर्वजन्मकृत ही थीं। यही कारण है कि उन्होंने इस जीवन में कठोर से कठोर अप्रत्याशित विपत्ति, संकट, एवं विघ्नबाधा को पूर्वजन्मकृत कर्मफल (प्रारब्ध का भोग) मानकर धैर्यपूर्वक समभाव से सहन की। पुनर्जन्म का सिद्धान्त इन्हें भावी उत्कर्ष हेतु पूर्ण विश्वास के साथ आगे बढ़ते रहने की प्ररणा देता था। अतः पूर्वजन्म और पुनर्जन्म के अस्तित्व की सिद्धि कर्म के अस्तित्व को सिद्ध करती है, दोनों का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 26 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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