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________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ सीधे अपने पिता के पास पहुंची । कनकप्रिय अपनी पुत्री पर विशेष स्नेह रखता था। वह उसकी लाड़ली इकलौती बेटी थी किन्तु रोती हुई अपनी बेटी के माथे पर जैसे ही उसने हाथ रखा वह भी सोने की हो गई । राजकुमारी एक जड़ पुतली हो गई । स्वर्ण की इस पीली भूख में जब उसकी प्रिय पुत्री ही चली गई तब उसकी आंखें खुली और वह वरदान के अभिशाप पक्ष पर पछताने लगा । उसके मुँह से अकस्मात निकल पड़ा - वरदान मुझे अभिशाप हुआ । कनकप्रिय की आंखों से लगातार आंसू बरसने लगे | वह व्यथित हो उठा किन्तु जैसे ही अपनी मनोव्यथा से छुटकारा पाने के लिये शैया पर लेटा वह शैया सोने की हो गई । मृदुता, सुकोमलता, कर्कशता और कठोरता में बदल गई । उसका आराम हराम हो गया । रानी आई, राजा ने उससे कहा मुझसे दूर रहो । मैं अभिशप्त हूँ। राजा रोने लगा, पछताने लगा, और हाय-हाय करने लगा । जैसे-तैसे प्रातः हुआ । दिव्य पुरुष अचानक दिखाई दिया । उसने पूछा - राजन् ! वरदान फलीभूत हुआ या नहीं? सुख से तो हैं? कनकप्रिय बोला आप कृपा करें । वास्तव में मैं दया का पात्र हूँ । जलती हुई आग में ईंधन न डालें । इस पर दिव्य पुरुष ने कहा - राजन् ! इसमें मेरा दोष कहां है? आपने जो चाहा मैंने वह दिया । राजा ने कहा - मैं दुःखी हूँ । भूखा प्यासा हूँ | तनिक भी आराम नहीं है । पुत्री सोने की हो गई इस निगोड़े वरदान के कारण तो मैं स्वजनों के उपयोग का भी नहीं रहा हूँ । आप मुझ पर दया करके इस दुःख और विपदा से मुक्त करें । दिव्य पुरुषने कहा राजन् !" आपने सोने के पीछे सर्वस्व नष्ट कर दिया है । धन के पीछे इतने बावले हुये कि अपना कर्तव्य भी भूल बैठे । मानवता को तिलाजंलि दे डाली । प्रजा पर अत्याचार किये । सोने के लिये आपने क्या नहीं किया? यह सोना नहीं है, हजारों हजार गरीबों का जीवन्त अभिशाप है । राजन् ! वह भाग्यशाली क्षण सामने है जब स्वयं को बदला जा सकता है लोभ छोड़िये और संयमी बनिये । सोना आपको निगल जायेगा, संयम आपकी रक्षा करेगा। शाश्वत सुख और अक्षुण्ण प्रेम का शुभाशीष लेना हो तो संयमी बनो। दिव्य पुरुष की अमृतोपम वाणी सुनकर राजा का हृदय बिलकुल बदल गया । राजा ने आदेश दिया इस स्वर्ण को प्रजा में लोक कल्याण कार्यों के लिये बांट दिया जाए ताकि राज्य में दानशालाएं, पाठशालाएं, अनाथालय, औषधालय इत्यादि खोले जा सकें । इसे निर्धन प्रजाजनों को मुक्त हस्त से बांट दिया जाए । इस तरह राजा ने संयम की सुखद जीवन शैली को अपनाया और प्रजा के प्रेम को प्राप्त किया । उसे प्रजा का आशीर्वाद मिला । वह स्वस्थ हो गया । उसकी सारी चिन्ताएं मिट गई । सारे रोग नष्ट हो गये । उसके आनन्द का ओर छोर नहीं रहा । एक माह पश्चात् जब नगर परिक्रमा के लिये वह निकला तब सारी प्रजा दर्शनाथ उमड़ पड़ी । प्रजा ने चिरायु होने की मंगल कामनाएं की । ३ पटेल की घोषणा : एक पटेल था । एक बार उसके मन में आया कि ग्रामवासी कमाने-खाने में ही लगे रहते हैं उन्हें थोड़ा आराम भी करना चाहिये । यह सोचकर उसने वन मोहत्सव करने का निश्चय किया । वन महोत्सव की तैयारियां पटेल के बाग में की गई। न्याय पंचायत का सरपंच और गांव मुखिया से मिलकर अपनी योजना उनको बतलाई । दोनों बहुत प्रसन्न हुये । और गांव में घोषणा करवा दी कि गांव के सब लोग दो दिन तक बाग में ही रहें, खाएं-पीएं आनन्द और मौज करें । कोई भी व्यक्ति ग्राम में न रहें । जो इस आज्ञा का उल्लंघन करेगा वह दण्ड का भागी होगा । इस घोषणा को सुनकर कतिपय व्यक्ति तो अफसोस करने लगे और जो आमोद प्रमोद के शौकीन थे, वे खुशी मनाने लगे । उस गांव में एक साहूकार भी रहता था । वह बड़ा धनवान था और न्याय सरपंच का घनिष्ठ मित्र था । न्याय सरपंच की उस पर बड़ी कृपा थी । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 39 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति ducationment
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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