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________________ दीर्घद्रष्टा-गुरु वल्लभ साध्वी सुमति श्री जी म. की शिष्या साध्वी सुविरति श्री जी गुरुदेव 16 वर्ष की छोटी आयु में राधनपुर के अंदर मोक्षाभिलाषी बन संसार का त्याग कर संयमी बने। 68 वर्ष की संयमी पर्याय में आत्म-कल्याण, समाज में ज्ञान प्रचार, समाज कल्याण कार्यों को करने में अपने जीवन का एक-एक पल, व्यतीत किया। समाज के दुःख में दुःखी होते थे। उनके हृदय में करुणा भरी थी। उनके वचन में शक्ति व चमत्कार भरा था। गुरुदेव हमेशा एकता के चाहक थे। _1. सेवा, 2. संगठन, 3. स्वावलंबन, 4. शिक्षा, 5. साहित्य का निर्माण-ये पांच गुरुदेव के जीवन मंत्र थे। उनकी सूझ-बूझ और दीर्घदृष्टि अलौकिक थी। आज से सौ साल बाद समाज में कैसी स्थिति होगी, उसकी रूपरेखा गुरुदेव ने पहले से ही समाज के सामने अपने मुखारविंद से फ़रमा दी थी। 'अपना जीवन व्यवहार चलाने के लिए व्यावहारिक शिक्षण की अति आवश्यक्ता रहेगी', ऐसा गुरुदेव ने कई साल पहले समाज को संदेश देकर जागृत किया था। इसलिए तो जगह-जगह पर गुरुदेव ने विद्या मंदिर, बोर्डिंग विद्यालय, स्कूल, कॉलेज बनवाकर सैंकड़ों विद्यार्थियों को ज्ञानामृतम् भोजनम् प्राप्त कराया। आज भी हजारों बच्चे देश-विदेश में डिग्रीधारी विद्यार्थी बनकर अपना गुज़ारा सुखशांति से कर रहे हैं और समाज के कार्य भी कर रहे हैं। महावीर विद्यालय जैसी बड़ी-बड़ी सात शाखाएं जगह-जगह पर आज भी विद्यमान हैं, जो यह पूज्य गुरुदेव की देन है। ऐसे दीर्घद्रष्टा पूज्य गुरुदेव थे? गुरुदेव को साधर्मिक भक्ति सबसे प्रिय थी। गुरुदेव ने साध्वी जी महाराजों को समाज में आगे आकर प्रवचन देने की आज्ञा दी थी। तभी गुरुदेव के सामने बहुत कठिनाईयाँ आईं, फिर भी गुरुदेव ने उसका विरोध हँसते मुख से सहन किया। आज उसकी झलक समाज में दिखाई दे रही है। काफी विदुषी साध्वियां जगह-जगह पर विचरण कर उपदेश देकर शासन के अनेक कार्य कर रही हैं, गुरु वल्लभ का नाम चमका रही हैं। _ महाराष्ट्र में आकोला शहर के समीप अंतरिक्ष पार्श्वनाथ तीर्थ है, वहां गुरुदेव का आज से 70 साल पहले पदार्पण हुआ था। तभी तीर्थ के विकास के लिए पूज्य गुरुदेव ने ट्रस्टी वर्ग को कहा कि यहां भोजनशाला और बाहरी भाग में नई धर्मशाला बनाने की जरूरत है। ट्रस्टी वर्ग ने गुरुदेव के वचन को वहीं स्वीकार कर लिया और एक भोजनशाला शुरू करवा दी। तभी से यात्रिक लोगों की संख्या बढ़ने लगी। प्रेम से प्रीति-भोजन करने लगे, तीर्थ का विकास बढ़ता रहा। गुरुदेव के कहने के मुताबिक बाहरी भाग में एक नई धर्मशाला भी बनवाई गई। आज से 25 साल पहले उस तीर्थ में दिगंबर, श्वेतांबर का अंदर के भाग में जोरदार झगड़ा हुआ तभी श्वेतांबर भाईयों को खड़े रहने के लिए भी जगह नहीं थी, उस समय भागते आकर बाहर की धर्मशाला में लोगों ने आवास किया और अपने आप को बचाया। कैसी दीर्घदृष्टि थी पूज्य गुरुदेव की। गुरुदेव का कहना था कि हर एक व्यक्ति को हिन्दी भाषा का ज्ञान लेना आवश्यक है। हिन्दी भाषा एक राष्ट्रभाषा होगी। वही गुरुदेव के वचन आज सत्य बन गए। हिन्दी भाषा एक राष्ट्रभाषा बन के रही। दीर्घद्रष्टा गुरु के तो जितने भी गुणगान गाएं उतने ही कम हैं। गुरुदेव दीर्घद्रष्टा थे इसलिए तो आज युगद्रष्टा भी बन चुके हैं। ऐसे गुरुदेव की स्वर्गारोहण अर्द्धशताब्दी वर्ष मनाने का मौका हमें प्राप्त हुआ है। हम सभी अपने आप को धन्य मान रहे हैं। ऐसे गुरुदेव को शत्-शत् नमन करके श्रद्धा-सुमन चढ़ाते हैं। समन्वय दृष्टि में समभाव बसता है। समभाव में सबके प्रति स्नेह और प्रेम झलकता है। स्नेह भावना पत्थर को भी मोम बना देती है। 48 विजय वल्लभ संस्मरण-संकलन स्मारिका 151 Fan Education Intem For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012061
Book TitleVijay Vallabh Sansmaran Sankalan Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpadanta Jain, Others
PublisherAkhil Bharatiya Vijay Vallabh Swargarohan Arddhashatabdi Mahotsava Samiti
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size51 MB
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