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________________ 15. स्थूल परिग्रह विरमण व्रतः सांसारिक पदार्थों के प्रति जितना ममत्व अधिक होगा, उतना ही असंतोष, अविश्वास और दुःख होगा। अत्यधिक ममत्व ही दुख का कारण है। इच्छाओं का कोई अन्त नहीं है। इन असीम इच्छाओं को सीमित कर देना, मर्यादित करना ही अपरिग्रह है। गृहस्थ को चाहिए कि वह परिग्रह सीमित करें। इससे समाजवाद को बल मिलता है। जितना परिग्रह कम होगा उतना ही जीवन सुखी और संतोषी होगा। 6. दिग्वत: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण आदि दिशाओं में जाने की मर्यादा रखना अर्थात् एक हजार, पांच हजार आदि मील से अधिक न जाना, दिव्रत है। यह व्रत लोभवृत्ति को भी अंकुश में रखता है और अनेक प्रकार की हिंसा से बचाता है। 17. भोगोपभोग विरमण व्रत : भोगोपभोग में दो शब्द हैं : भोग और उपभोग। जो वस्तु केवल एक ही बार काम में आती है, वह भोग्य वस्तु है और जो अनेक बार काम में आती है उसे उपभोग कहा जाता है, जैसे अन्न, पानी, विलेपन आदि ये चीजें भोग हैं और दूसरी बार काम में नहीं आती। घर, वस्त्र गहने आदि उपभोग है क्योंकि ये बार-बार काम में आती हैं। इन चीजों का परिणाम निश्चित कर लेना चाहिए। इन चीजों का परिमाण हो जाने पर तृष्णा पर अंकुश आता है। इच्छाओं का निरोध होता है, चित्त की चंचलता कम होती है। 18. अनर्थ दंड विरमण व्रत : बिना प्रयोजन के पाप लगने की क्रिया को अनर्थदंड विरमण व्रत कहा जाता है। व्यर्थ ही दूषित विचार करना, दुर्ध्यान करना, पापोपदेश देना, अनीति, अन्याय असत्य की प्रवृत्ति करना, किसी हत्यारे को प्रोत्साहन देना, तमाशा देखना, मजाक उड़ाना ये सब अनर्थ दंड अर्थात् निरर्थक आचरण के कार्य हैं। गृहस्थ को इन से दूर रहना चाहिए। 19. सामायिक व्रतः सामायिक का अर्थ है किसी एकान्त स्थान में अड़तालीस मिनट समतापूर्वक बैठना। इस सामायिक में बैठकर व्यक्ति को आत्मचिंतन करना चाहिए, स्वाध्याय और मनन करना चाहिए, मोह और ममत्व को दूर करना चाहिए, समभाव वृत्ति को धारण करना चाहिए। चाहे कितना ही उपद्रव हो पर उद्विग्न न होना चाहिए। संक्षेप में कहें तो मन, वचन और काया को अशुभ वृत्तियों से हटाकर शुभ ध्यान में लगाना चाहिए। 10. देशावकासिक व्रत : “दिग्वत" में दिशाओं का जो परिणाम किया गया है, वह यावज्जीवन का है। उसमें क्षेत्र की विशालता रहती है। परंतु "देशावकासिक व्रत" में क्षेत्र की सीमितता रहती है। दस मील जाना या पांच मील जाना या दो मील जाना व दस सामायिक के साथ सुबह शाम का प्रतिक्रमण करना "देशावकासिक व्रत" कहा जाता है। 11. पौषधव्रतः धर्म को जो पुष्ट करता है, उसका नाम पौषध है। बारह, चौबीस, या जितनी इच्छा हो उतने घण्टे तक सांसारिक प्रवृत्तियों को छोड़कर धर्मस्थान में धर्म क्रिया करते हुए साधुवृत्ति में रहना पौषध माना जाता है। जितने समय का पौषध हो, उतने समय तक ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए, स्नानादि श्रृंगार का त्याग करना चाहिए, प्रासुक पानी का प्रयोग करना चाहिए और यथाशक्ति उपवासादि तप करना चाहिए। 12. अतिथि संविभाग व्रत : जिन्होंने लौकिक पर्व-उत्सवादि का त्याग कर दिया है, वे अतिथि हैं अर्थात् जिन्होंने आत्मा की उन्नति के लिए गृहस्थाश्रम का त्याग कर दिया है, स्व -पर कल्याणकारी संन्यास मार्ग जिन्होंने ग्रहण किया है, ऐसे मुमुक्षु महात्माओं का अन्न-पानी और वस्त्रादि आवश्यक चीजों से स्वागत-सत्कार करने का नाम अतिथि संविभाग व्रत है। इस व्रत में ऐसी प्रतिज्ञा की जाती है कि जब तक अतिथि अर्थात् साधु या साधर्मिक भाई खाद्य पदार्थ ग्रहण नहीं करेंगे तब तक मैं भी ग्रहण नहीं करूँगा और उतनी ही चीजें खानी चाहिए, जितनी कि साधु महाराज बहोरते हैं। प्रातःकाल उठते ही इस व्रत को धारण कर लेना चाहिए और किसी को बताना नहीं चाहिए। उपर्युक्त पांच अणुव्रतों को चार मास, एक मास, बीस दिन या एक रात के लिए भी ग्रहण किए जा सकते हैं। इन बारह व्रतों के पालन से गृहस्थ अनेक बुरे कार्यों से पापाचरण से बच जाता है। इन बारह व्रतों को अंगीकार करने से पहले सम्यक्त्व प्राप्त करना अत्यन्त आवश्यक होता है। सम्यक्त्व देव, गुरु और धर्म पर पूर्ण और अटल श्रद्धा विश्वास रखने पर ही प्राप्त होता है। चौदह नियम बहुत सी चीजें मनुष्य को प्रतिदिन काम आती हैं। उन सब चीजों को चौदह भागों में विभक्त किया गया है। प्रातःकाल उठते ही मनुष्य को उन चीजों को 253 विजय वल्लभ संस्मरण-संकलन स्मारिका For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org,
SR No.012061
Book TitleVijay Vallabh Sansmaran Sankalan Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpadanta Jain, Others
PublisherAkhil Bharatiya Vijay Vallabh Swargarohan Arddhashatabdi Mahotsava Samiti
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size51 MB
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