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________________ श्रावक और उसका धर्म कार्यदक्ष आ. श्रीमद् विजय जगत्चन्द्र सूरि जी म. जैन दर्शन में धर्म को प्राप्त करने के दो प्रकार के मार्ग बताए गये हैं, प्रथम साधु धर्म और द्वितीय गृहस्थ धर्म । दोनों रास्ते अलग-अलग हैं ; परंतु लक्ष्य दोनों का एक ही है और यह भी सत्य है कि साधु हो या गृहस्थ बिना धर्म के आचरण के किसी का कल्याण नहीं होता। साधु सांसारिक प्रपंचों को छोड़ देता है इसलिए न तो उसे द्रव्य की आवश्यकता है, न घर-परिवार की, अतः उसके लिए हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन, परिग्रह आदि सर्वथा त्याज्य होते हैं। यह जब कि गृहस्थ के लिए 'सर्वथा' त्याज्य नहीं है। इसीलिए जैन दर्शन ने दो प्रकार के धर्म बताए हैं। जो लोग जैन धर्म का पालन करते हैं, उन्हें जैन परिभाषा में “श्रावक" और "श्राविका" कहा जाता है। इसका अर्थ यह नहीं कि जैन धर्म का पालन केवल बनिये ही कर सकते हैं। इसका पालन किसी भी जाति का या वर्ग का व्यक्ति कर सकता है ,चाहे वह ब्राह्मण हो, क्षत्रिय हो, वैश्य हो या शुद्र हो। वे भी “श्रावक" और "श्राविका" , कहलाने के अधिकारी हो सकते हैं। भगवान महावीर स्वामी के मुख्य दस श्रावक थे, उनमें कुछ कुंभकार थे, कुछ कणबी (आंखों में अगर मुस्कान है। थे। श्रावक का अर्थ है श्रवण करना, हितकर वचन सुनना अर्थात् कल्याण के मार्ग पर चलने के लिए जो तत्पर रहता तो इंसान तुमसे दूर नहीं | है वह श्रावक है। और वह कोई भी हो सकता है। साधुओं के लिए जैसे पांच महाव्रत हैं ,वैसे ही। पाँवों में अगर उड़ान है श्रावकों के लिए बारह व्रत हैं। यहाँ यह नहीं भूलना चाहिए कि संसार आधि (मानसिक कष्ट) -व्याधि (शारीरिक कष्ट)। | तो आसमान तुमसे दूर नहीं और उपाधि (सांसारिक कष्ट) से भरा हुआ है। उसमें फंस कर मनुष्य दुख झेलता है और दुख भूलों का परिणाम है। । शिखर पर बैठकर मनुष्य जब अपने कर्त्तव्य से पतित हो जाता है, तब पाप या भूल करता है और इसीलिए वह दुखी होता है। शास्त्रकारों विहग ने यही गीत गाया ने यम-नियम का विधान इसलिए किया है कि मनुष्य अपने कर्तव्य-पथ पर चलता रहे और लक्ष्य को प्राप्त करे। गृहस्थों | श्रद्धा में अगर जान है के लिए बारह व्रतों का विधान इसलिए है कि उनकी लोभवृत्ति कुछ कम हो, आधि-व्याधि-उपाधि के बीच भी वह तो भगवान तुमसे दूर नहीं/ सुखी जीवन बिता सके। इन व्रतों का यही लक्ष्य है। इन बारह व्रतों में प्रारंभ के पांच व्रतों को “अणुव्रत" कहा जाता है। "अणु" का अर्थ है छोटा। साधुओं की अपेक्षा से गृहस्थों के महाव्रत छोटे और अल्प होते हैं। छह से आठ तक के व्रतों को "गुणव्रत" कहा जाता है क्योंकि वे पांच अणुव्रतों के सहायक होते हैं और अन्तिम चार को शिक्षाव्रत कहा जाता है क्योंकि वे प्रतिदिन अभ्यास करने योग्य होते हैं। बारह व्रत यहाँ बारह व्रतों का संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है। 1. स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत : इसमें स्थूल-प्राण-अतिपात-विरमण-व्रत शब्द हैं। इसका अर्थ यह है कि स्थूल जीवों की हिंसा से दूर रहना। जीवों के दो भेद हैं (1) त्रस और (2) स्थावर। पृथ्वीकाय, अपकाय, तेउकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय इन पांच एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा से गृहस्थ बच नहीं सकता। इसलिए उसे स्थूल त्रस जीवों की हिंसा से बचना चाहिए। गृहस्थ को संकल्प पूर्वक कोई हिंसा नहीं करनी चाहिए। 2. स्थूलमृषावाद विरमण व्रत : होना तो यह चाहिए कि श्रावक को सूक्ष्म असत्य भी नहीं बोलना चाहिए परंतु व्यवहार जगत में यह संभव नहीं इसलिए गृहस्थ को स्थूल मृषावाद-असत्य का त्याग करना चाहिए। क्रोध, लोभ, भय और हास्य के कारण व्यक्ति झूठ बोलता है और इन चारों को छोड़ना कठिन है। इसीलिए व्यक्ति को सदा जागृत रहना चाहिए। 3. अदत्तादान विरमण व्रतः न दी हुई चीज-वस्तु को ग्रहण करना अदत्तादान है। व्यावहारिक भाषा में इसे “चोरी" कहा जाता है। सूक्ष्म चोरी का त्याग न करने वाले गृहस्थ को कम से कम स्थूल चोरी का त्याग करना चाहिए। रास्ते में पड़ी हुई चीज उठा लेना, जमीन में गड़े हुए धन को निकाल लेना, किसी की रखी हुई वस्तु को बिना पूछे प्रयोग करना, दान-चोरी (कस्टम चोरी) कम लेना, अधिक देना, अधिक लेना-कम देना ये सभी चोरी के स्थूल प्रकार हैं, गृहस्थ को इससे बचना चाहिए। 4. स्थूल मैथुन विरमण व्रतः गृहस्थ को स्वदारा संतोषी होना चाहिए और परस्त्री का सर्वथा त्याग करना चाहिए। अपनी विवाहिता स्त्री को छोड़कर, वेश्या, विधवा या किसी कुमारी से शारीरिक सम्बंध नहीं रखना चाहिए। इन्हें अपनी माता और बहन तथा पुत्री मानना चाहिए। इसी प्रकार श्राविकाओं को भी अपने पति को छोड़कर किसी अन्य पुरुष से सम्बन्ध नहीं रखना चाहिए। “स्वदारा संतोष" का अर्थ यह है कि अपनी स्त्री से भी मर्यादित ही सम्बन्ध रखना चाहिए। अपनी स्त्री के साथ भी मर्यादा का भंग होता है तो व्यभिचार गिना जाता है। इसलिए गृहस्थ को स्वदारा संतोषी और परस्त्री का त्याग होना चाहिए। 252 विजय वल्लभ संस्मरण-संकलन स्मारिका For Private & Personal use only 1500 Jain Education Internallonal www.jainelibrary.org
SR No.012061
Book TitleVijay Vallabh Sansmaran Sankalan Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpadanta Jain, Others
PublisherAkhil Bharatiya Vijay Vallabh Swargarohan Arddhashatabdi Mahotsava Samiti
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size51 MB
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