SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 217
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ने कहा था .. "आज हजारों जैन परिवारों के पास पेट भर खा सके इतना अन्न नहीं है और न पहनने के लिए पूरे कपड़े ही। बिमार की दवा करने या बालकों को शिक्षा देने के लिए पास में पैसा नहीं है। आज हमारे मध्यम श्रेणी के भाई बहन दुःखों की चक्की में पिस रहे हैं। भाईओं के पास थोड़े बहुत ज़ेवर थे, वे बिक गए, अब बर्तन के बेचने की नौबत आ गई है। कुछ तो दुःख और आफत के मारे आत्म हत्या की परिस्थिति तक पहँच गए हैं। वे जो हमारे भाई बहन है उनकी दशा सुधारनी जरूरी है। यदि मध्यम वर्ग मौज करे और अपने साधर्मी भाई भूखों मरे यह समाजिक न्याय नहीं है, किन्तु अन्याय है।" "महा सभा क्या है?" पंजाब श्री संघ का गौरव है। विश्व पूज्य, जग मान्य, स्व नाम धन्य पंजाब देशोद्धारक न्यायम्भोनिधि जैनाचार्य श्री 1008 श्रीमद् विजयानन्द सूरीश्वर जी म० के भक्तों का संगठन है। इस संगठन को यदि मजबूत बनाए रखोगे तो तुम्हारा बोलबाला है। महासभा हरीबरी रहेगी तो पंजाब श्री संघ भी हरा-भरा रहेगा।" "पुराने और नये को देखकर यह नहीं कहा जा सकता कि पुराना ही अच्छा है, नया सब खराब है या नया ही ठीक है पुराना सब खराब है, यह तो मनुष्य के विवेक पर निर्भर है। विवेक की आंखो से वह पुराने और नए को देखे-परखे और तब जो सत्य (प्राणियों के लिए हितकर) जंचे उसे वह अपनाए और असत्य (अहितकर) को छोड़े। जैन धर्म ने किसी भी वस्तु की अच्छाई-बुराई का निर्णय करने के लिए कहा है-'पहले परीक्षा से वह उसे भलीभाँति जाने और हेय अँचे तो फिर प्रत्याख्यान परीक्षा से उसे त्यागे।" यद्यपि मैं एक सम्प्रदाय विशेष का आचार्य हूँ पर यदि हम वास्तव में सारे विश्व में सत्य तथा अहिंसा के द्वारा शांति स्थापित करना चाहते है तो हमें साम्प्रदायिकता को गौण करते हुए मानवता की दृष्टि से सोचना पड़ेगा। विश्व शान्ति के लिए हमें अपने संकीर्ण सम्प्रदायवादी विचारों को तिलाजंलि देनी होगी साथ ही हमें यह सोचना होगा कि विश्व शान्ति किन ठोस उपायों द्वारा स्थापित हो सकती है? उस समय हमें यह नही सोचना है कि हम जैन है बौद्ध है मुस्लमान है, पारसी है अथवा इसाई है। उस समय केवल हमें यह सोचना है कि हम मानव है और मानवता हमारा मूल धर्म है और मानव की शान्ति ही हमारा चरम उद्देश्य है, तभी जाकर चिरस्थाई विश्वशान्ति स्थापित हो सकती लक्ष्मी चंचला है। वह संदूकों में बंद करके रखी जाए या सोने चांदी की ईंटें बनावाकर दीवारों में चुन दी जाए अथवा जमीन में गाड़ कर रख दी जाए, तो भी वह स्थिर नहीं रहती। एक दिन चुपचाप निकल जाती है। वह सदा के लिए न किसी की हुई है, न होने वाली है। पूर्व पुण्य के प्रताप से धन मिला है, उसे केवल सुखोपभोग के लिए ही खर्च न करो, उसका उपयोग, समाज, देश, और धर्म के काम में भी करो। यह नहीं कहा जा सकता कि वह कल चली जाएगी। ऐसे अनेक उदाहरण है जो बताते हैं कि एक आदमी चार रोज पहले करोड़ पति था, वही आज पैसे-पैसे के लिए मोहताज़ है। जो लोग विरोध बढ़ जाने के डर से या अपने सम्प्रदाय की पकड़ी हुई बात को, चाहे वह आज अहितकार हो, छोड़ने में प्रतिष्ठा जाने का खतरा महसूस करके शरमाते हैं या देख-देखी पुरानी धातक परम्पराओं के बदलने में स्वयं संकोच करते हैं अथवा दूसरा कोई हितैषी किसी परम्परा को बढ़ा देता है तो उसे ठीक समझते हुए भी, सच्ची बात कहने में हिचकिचाते हैं, व सत्य के पूजारी नहीं कुरुढीओं के पुजारी हैं। 215 विजय वल्लभ संस्मरण-संकलन स्मारिका For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.012061
Book TitleVijay Vallabh Sansmaran Sankalan Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpadanta Jain, Others
PublisherAkhil Bharatiya Vijay Vallabh Swargarohan Arddhashatabdi Mahotsava Samiti
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size51 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy