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________________ भगवान महावीर स्वामी से चली आ रही अविच्छिन्न गौरवशाली पाट - परम्परा तपागच्छ की उत्पत्ति 18 चरम तीर्थकर प्रभु श्री महावीर के 43 वें पाट पर आचार्य श्री सोमप्रभ सूरि तथा आचार्य श्री मुनि (मणि) रत्न सूरि दो गुरुभाई हुए और 44 वें पाट पर आचार्य श्री जगच्चन्द्र सूरि हुए। आप आचार्य श्री मुनिरत्न सूरि के सगे भाई थे। आपने आघाटपुर नगर (वर्तमान में उदयपुर के निकट आहड़ नामक ग्राम) में आचार्य श्री मणिरत्न सूरि (अपने सगे भाई) से निर्बंध अणगार की दीक्षा ग्रहण की मुनिरत्न सूरि-मणिरत्न सूरि के नाम से प्रसिद्ध थे। इसकी पुष्टि मुनि श्री पं. कल्याण विजय जी ने स्व संपादित तपागच्छ पट्टावली भाग 1 में की है। आचार्य मुनिरत्न सूरि के भाई श्री जगच्चन्द्र का विवाह हुआ था। इनकी पत्नी ने जसदेव नामक पुत्र को जन्म दिया था। इसी जसदेव के पुत्र श्री ईश्वरचन्द्र जी सर्वप्रथम पंजाब में आये थे। पश्चात् श्री जगच्चन्द्र ने पत्नी, परिवार, धन-दौलत आदि सब परिग्रह का त्याग कर अपने भाई श्री मुनिरत्न सूरि से निर्बंध अणगार की दीक्षा आघाटपुर ( आहड़ ) नगर में ली। आचार्य श्री मुनिरत्न सूरि ने आपको अपना शिष्य बनाया। मुनि जगच्चन्द्र जी परम संवेगधारी थे, आपको सुयोग्य जानकर श्री मुनिरत्न सूरि जी के बड़े गुरुभाई आचार्य श्री सोमप्रभ सूरि ने आचार्य पद प्रदान कर अपना पट्टधर स्थापित किया। भगवान महावीर के 35 वें पट्टधर श्री उद्योतन सूरि से बड़गच्छ की स्थापना हुई थी। आप इसी गच्छ में दीक्षित हुए थे और प्रभु श्री महावीर के 44 वें पाट पर सुशोभित हुए थे। आपके समय में श्रमणसंघ में प्रमाद के कारण क्रिया शैथल्य आ गया था। इसलिये आप क्रियोद्धार करने के लिये अत्यन्त उत्सुक थे। इससे पहले आचार्य श्री धनेश्वर सूरि ने 'चैत्रपुर' में भगवान श्री महावीर स्वामी की प्रतिमा की प्रतिष्ठा की थी। तब से उनका शिष्य परिवार ‘चैत्रवाल गच्छ' के नाम से ख्याति पा चुका था। विक्रम की तेरहवीं शताब्दी के चौथे चरण में आचार्य भुवनचन्द्र सूरि तथा उपाध्याय 'देवभद्र गणि 'चैत्रवाल गच्छ' के अधिपति थे। उपाध्याय जी संवेगी शुद्ध चारित्रवान, गुणवान, आगमवेदी तथा शुद्ध सामाचारी के गवेषक थे। आचार्य श्री जगच्चन्द्रसूरि को उनका योग मिला। आचार्य श्री के सात्विक चारित्र ने उपाध्याय जी पर गहरा प्रभाव डाला। उन्होंने इस आदर्श मार्ग को अधिक उत्साहित किया और दोनों ने सहयोगी होकर क्रियोद्धार करने का निश्चय किया। साभार- " सद्धर्म संरक्षक” लेखक : हीरा लाल दुग्गड़ शास्त्री आचार्य श्री जगच्चन्द्र सूरि ने वि. सं. 1273 में बड़गच्छ के उपाध्याय देवभद्र गणि तथा स्व- शिष्य देवेन्द्र की सहायता से क्रियोद्धार किया तथा यावज्जीव (जीवन के अन्तिम श्वासों तक) आयंबिल तप करने का अभिग्रह किया। संभव है कि स्व-शिष्य देवेन्द्र को गुरु श्री जगच्चन्द्र ने इसी प्रसंग पर आचार्य पदवी से विभूषित किया होगा ? आचार्य जगत्चन्द्र सूरि विहार करते हुए वि.सं. 1285 में मेवाड़ में आघाट (आहड़ नगर अपने जन्म तथा दीक्षा स्थान में पधारे। मेवाड़ाधिपति राणा जैत्रसिंह आचार्य श्री के दर्शनों के लिये आया । बारह-बारह वर्षों तक आयंबिल के तप से तेजस्वी, शुद्ध चारित्र की प्रभा डालता हुआ देदीप्यमान काँतिपुंज मुखमंडल देखते ही राणा का सिर सूरि जी के चरणों में झुक गया। वह सहसा बोल उठा कि : "अहो ! साक्षात् तपोमूर्ति हैं।" ऐसा कहकर बितौड़ाधीश राणा जैत्रसिंह ने वीर निर्वाण सं. 1755 (वि.सं. 1285, ई.सं. 1228) में आचार्य श्री जगत्चन्द्र सूरि को 'तपा' की पदवी से विभूषित किया। तब से आपका शिष्य परिवार 'तपगण' नाम से प्रसिद्धि पाया। इस सिसोदिया राजवंश ने भी तपागच्छ को अपना गुरु स्वीकार किया पीछे से मेवाड़ के राणाओं की विज्ञप्तियां, नगर सेठ के कुटुम्ब का सम्बंध तथा तपागच्छीय आचार्यों का एवं श्रीपूज्यों का आज तक होता आ रहा सम्मान इस बात की साक्षी दे रहा है। 1 आचार्य श्री जगत्चन्द्र सूरि जैसे त्यागी थे, तपस्वी थे वैसे ही विद्या पारंगत भी थे। आपको बजारी की सरस्वती प्रत्यक्ष थी। आपने आघाट (आहड़ ) में वाद करके 32 दिगम्बर आचार्यों को जीता था। इसलिये राणा जैत्रसिंह ने सूरि जी को हीरा के समान उभेद्य मानकर 'हीरला' का विरुद देकर "हीरला श्री जगत्चन्द्र सूरि" के नाम से संबोधित किया था। आप का नाम आज भी गौरवान्वित है। आचार्य श्री वि. सं. 1287 (ई.सं. 1230) में मेवाड़ के "वीरशाली गांव में स्वर्ग सिधारे। Jain Education International विजय वल्लभ संस्मरण संकलन स्मारिका For Private & Personal Use Only 50 www.jainelibrary.org
SR No.012061
Book TitleVijay Vallabh Sansmaran Sankalan Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpadanta Jain, Others
PublisherAkhil Bharatiya Vijay Vallabh Swargarohan Arddhashatabdi Mahotsava Samiti
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size51 MB
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