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________________ विश्व वल्लभ "चाहे हो शूलों की चुभन किंवा हो सुमन-सौरभ किंतु निरंतर जो समता सागर वही तो है-विजय वल्लभ" मन पर जिसने विजय की थी, अपरिग्रहवाद विजेता था इसीलिये उसने उस वल्लभ को, “जैनम् जयति शासनम्" को अपेक्षा की जिसने इतिश्री की थी, परम तत्त्व को संचित कर-कर भू पर ऐसा उद्घोषित करने विदा किया था, प.पू. की झिलमिला-झिलमिला कर जिसने सौभाग्य मनहर उद्यान लगाया था जो ज्ञान-विज्ञान से सुभाशीष पाकर गुरुवर ने भी धरती पर स्वर्ग की सृष्टि की थी, उसी महात्मा की अजर पल्लवित होकर दर्शन से पुष्पित होकर, बिछाने, ज्ञान गरिमा गौरवान्वित करने का अमर गाथा यानि शाश्वत से ही नाता। चारित्रय की समता से सरस सुंदर बना था अनूठा पुरुषार्थ किया था। पी पी कर अमरत्व बना जो जिसने प्राण प्राण हर्षाया था यानि उन्हें वल्लभ मनुष्य नहीं था, वल्लभ देव का अजरामर। घोल घोल सहजानंद अमृत चारित्रयवान बनाया था। संस्करण था। जग पे जगमग ज्योत जगाने वह पिलाया, स्वजन बनाया, ऐसा महंत । प्रभुत्व वल्लभ न केवल जग वल्लभ था बल्कि सर्वदा समुद्यत था। चूंकि तिमिर मिटाने, प्रसार द्वेष दारिद्रय हटाया ऐसा महाभाग। वह अपने परम पूज्य जग हितकारी श्री दारिद्रय हटाने का उसका उपक्रम था इसीलिये मनमोहन मानव बना कर्मण्य शिक्षा प्रसारण में वह सदा युत मानस सजा, किया जिसने 'वल्लभ मनुष्य नहीं था, वल्लभ देव का संस्करण था। जग पे तत्पर था अथवा यूं कहो कि जय जयकार। जगमग ज्योत जगाने वह सर्वदा समघत था। चंकि तिमिर मिटाने, दारिद्रय वह जन-गण को ज्ञानवान हृत्तल जिसका सुधा बनाने में सिद्धहस्त था। इसी हटाने का उसका उपक्रम था इसीलिये शिक्षा प्रसारण में वह सदा तत्पर था। संचित था, किसलय कोमल गुरुमंत्र को उसने पंजाब में सा जो कमनीय था-शांतअथवा यूं कहो कि वह जन-गण को ज्ञानवान बनाने में सिद्धहस्त था। इसी निनादित किया था तो दांत-खांत वह स्वयं ही तो गुरुमंत्र को उसने पंजाब में निनादित किया था तो राजस्थान, गुजरात, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र था। सच्चिदानंद सा वह महाराष्ट्र आदि को भी उसने अछता नहीं छोड़ा था।" आदि को भी उसने अछूता सस्मित था, समष्टि सा वह नहीं छोड़ा था। सारांश यह कि पुलकित था, उत्फुल्ल कमल आत्माराम जी का भी लाडला था, मनभावन वह पुरुष सिंह जहाँ-जहाँ भी सा वह हर्षित था-आनंद कंद, सामथ्यवंत- था। श्री विजयानंद सूरीश्वर जी ने ऐसा गया वहाँ-वहाँ उस धरा को पावन करता शिवरमण वल्लभ ही तो वह था। इसीलिये सुयोग्य शिष्य पाकर उसे स्नेह सिक्त गया। गुरुवर दीर्घदृष्टा था इसलिये उसने उसकी गद्य-पद्य उभय वाणी में स्वरूप दर्शन माधुर्यलसित परमानंद पिलाया था जो करुणाई शिक्षा प्रसारण हेतु जगह-जगह गुरुकुलों का था। इसका कारण था जो स्पष्टतया हार्द्र, दयानिधान बनाने में सम्यक् रूपेण संस्थापन करवाया था। जीवन जन-गण का परिलक्षित था कि उनकी इच्छा माता का सफल हुआ था। परिणामेन वल्लभ ज्ञानवान, दिव्य बने यही वल्लभ का प्रण था। अपने प्रण ममत्व, परमतत्व से अभिसंचित होकर को प्राणवान बनाने, अज्ञान हटाने, वसुंधरा उसके पय पान द्वारा वल्लभ के जीवन में विनय-विवेक, देवत्व-सम्येक से भी संपुटित का समोल्लासित बनाने वह पल-प्रतिपल परसा गया था, सरसा गया था। वल्लभ हुआ था। प्रसन्न होकर आचार्य प्रवर ने समुद्यत था। 174 विजय वल्लभ संस्मरण-संकलन स्मारिका Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012061
Book TitleVijay Vallabh Sansmaran Sankalan Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpadanta Jain, Others
PublisherAkhil Bharatiya Vijay Vallabh Swargarohan Arddhashatabdi Mahotsava Samiti
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size51 MB
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