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________________ ध्यान के बिना कर्म का क्षय नहीं यह बात जितनी सच्ची है। में जीव का कोई रक्षक है तो वह मिथ्यात्व, अविरति और प्रमाद इन उतनी ही सच्ची बात यह है कि प्रमत्त अवस्था दूर न हो तब तक तीनों की प्रतिपक्षी क्रियाएं ही हैं। उपयोग युक्त क्रिया को छोड़कर दूसरा ध्यान भी नहीं। __मिथ्यात्व से प्रतिपक्षभूत सम्यक्त्व है। वह चतुर्थ गुण स्थान इस काल में और इस क्षेत्र में घृति संहनन आदि के अभाव में प्राप्त होता है। उसका रक्षण करने वाली क्रिया देव-गुरु-संघ की में यदि केवलज्ञान और मुक्ति है ही नहीं और उसके कारण रूप भक्ति और शासनोन्नति की क्रिया है। अविरति की प्रतिपक्षी विरति अप्रमत्त आदि गुण स्थानों की विद्यमानता भी नहीं ही है तो अपनी है जिसके दो प्रकार हैं। आंशिक और सर्वथा। आंशिक को देश भूमिका के योग्य आराधना में ही मग्न रहना, दृढ़ रहना और उससे विरति और सर्वथा को सर्व विरति कहते हैं। देश विरति का रक्षण चलित न होना ही वास्तविक मुक्ति का मार्ग है। दोष की प्रतिपक्षी करने वाला गृहस्थ के षट् कर्म और बारह व्रतादि का पालन है। क्रियाएं ही उन दोषों का निग्रह कर सकती हैं। सर्वविरति का रक्षण करने वाली साधु की दैनिक समाचारी और जीव के उत्क्रान्ति मार्ग के सोपान के रूप में शास्त्रों में चौदह प्रतिक्रमणादि क्रिया है। प्रमत के लिए क्रिया ही ध्यान है जहां तक प्रकार के गुणस्थानों का वर्णन है। जहां तक जीव मिथ्यात्व दोष के प्रमाद है वहां तक प्रतिक्रमण की अवश्यकता है। प्रमादवश अपना अधीन है, वहां तक वह प्रथम गुण स्थान से ऊपर नहीं जा सकता। स्थान छोड़कर परस्थान में पहुँचा हुआ जीव स्वस्थान में लौटता है जहाँ तक अविरति दोष के अधीन है वहां तक चौथे गुणस्थान से उसे प्रतिक्रमण कहते है। प्रतिक्रमण चरित्र का प्राण है। इन क्रियाओं ऊपर नहीं चढ़ सकता, जहां तक प्रमाद दोष के अधीन है वहां तक के अवलंबन बिना सम्बन्धित गुणस्थान टिक नहीं सकते। छठे गुणस्थान से ऊपर नहीं बढ़ सकता। जीव का अधिक से अधिक (मोह) वासना का समूल नाश बारहवें गुणस्थानक के काल प्रमत्त नामक छठे गुणस्थान या उससे नीचे के गुणस्थानों में ही सिवाय हो नहीं सकता। दसवें गुणस्थान तक लोभ का अंश रह बीतता है। वर्तमान में काल, क्षेत्र और जीवों की घृति तथा संघयण जाता है। ग्यारहवें गुणस्थान में भी उसकी सत्ता है। मनोनाश केवल के दोष के कारण छठे और सातवें गुणस्थान के ऊपर के गुणस्थान तेरहवें गुणस्थान में हो सकता है और वही जीवन्मुक्ति दशा है। नहीं माने जाते। सातवें गुणस्थान का सम्पूर्ण काल एकत्रित किया विदेह मुक्ति तो उससे भी आगे बढ़ने के बाद चौदहवें गुण स्थान के जाए तो भी वह एक अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं बनता। इस स्थिति अंत में होती है। सामायिक मंडल (श्रावक) लुधियाना ने आचार्य श्री विजय वल्लभ सूरि जी की देवलोक गमन अर्द्धशताब्दी के उपलक्ष में वर्तमान पट्टधर आचार्य श्रीमद् विजय रत्नाकर सूरि जी की निश्रा में 84 सामायिक/प्रतिक्रमण करने के लिये 12-25 वर्ष आयु के बच्चों को आहवान दिया था। उसमें बच्चों ने 84 सामायिक-प्रतिक्रमण गुरुदेव की पुण्य तिथि तक पूरे किये हैं। सामायिक मंडल की ओर से अम्बाला में आचार्य रत्नाकर सूरि की निश्रा में सामायिक के वस्त्र एवं नकद राशि देकर पुरस्कृत किया गया। NNY देव जैन आयु 15 वर्ष सुपुत्र श्री ज्ञान चंद विनोद कुमार जैन (जंडियाला वाले) लुधियाना पुलकित जैन आयु 10 वर्ष सुपुत्र श्री ज्ञान चंद भूषण कुमार जैन (जंडियाला वाले) लुधियाना विनय जैन आयु 21 वर्ष सुपुत्र श्री ज्ञान चंद विनोद कुमार जैन (जंडियाला वाले) लुधियाना विजय वल्लभ संस्मरण-संकलन स्मारिका 167 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012061
Book TitleVijay Vallabh Sansmaran Sankalan Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpadanta Jain, Others
PublisherAkhil Bharatiya Vijay Vallabh Swargarohan Arddhashatabdi Mahotsava Samiti
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size51 MB
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