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________________ "शुद्ध श्रद्धा बिना सर्व किया करी, छार पर लीपणो तेह जाणो।" योगीराज श्री आनंदघन जी महा. "द्रव्य क्रिया रूचि जीवडा जी, भाव धर्म रूचि हीन। उपदेशक पण तेहवा जी, शंकरे जीव नवीन हो।।” महात्मा श्रीमद् देवचन्द्र जी महा. “विषया रसे गृही माचिया, नाचिया कुगुरुमद पूर रे। धूमधामे धमाधम चाली, ज्ञान मार्ग रह्यो दूर रे।। कलहकारी कदाग्रह भर्या, थापता आपण बोल रे। जिनवचन अन्यथा दाखवे, आज तो बाजते ढोल रे।।" उपा. श्री यशोविजय जी महा.. महापुरुषों की यह अनुभव वाणी बड़ी मार्मिक है परन्तु इसकी कीमत समझने वाले कम, समझ कर छिपाने वाले बहुत अधिक है। आजकल तो जैसे-तैसे लक्की ड्रा, पुरस्कारों का प्रलोभन देकर भीड़ इकट्ठी कर मजमा जमा लेने को शासन की जाहोजलाली समझा जाता है। महान् फल, अनूठा प्रभाव, आपके जीवन में, आपके नगर में पहली बार की चिल्लाहट कर करवाई जाती क्रियाओं की फूंक निकालते हुए महापुरुष कहते हैं 'देवचन्द्र कहे या विध तो हम, बहुत बार कर लीनो' पर समकित अर्थात् मोक्ष की शुद्ध श्रद्धा के बिना मेरा चार गति में भ्रमण खत्म नहीं हुआ। आगमविहित, गीतार्थ अनुमत, पूर्व महापुरुषों द्वारा आराधित मोक्ष की श्रद्धामय धर्म भाव धर्म है। अविचार पूर्ण गाडरिया प्रवाही द्रव्य धर्म और जिनाज्ञा सम्मत भाव धर्म का परिणाम शास्त्रकारों ने स्पष्टतया बतलाया है। जैन जगत् में दादा गुरुदेव नाम से प्रख्यात श्री जिनदत्त सूरि महा. स्वकृत 'संदेहदोहावली' में द्रव्य, धर्म और भावधर्म का स्वरूप पूर्व गाथाओं में बताकर उनका विपाक लिखते हैं :पढमंमि आडबंधो, दुक्करकिरियओ होइ देवेसु।। तत्तो बहुदुख परंपराओ, नरतिरियजाइसु।।2।। बीए विमाणवज्जो आडयबंधो न विज्जाए पायं। सुखित्तकुले नरजम्म, सिवगमो होई अचिरेण।।3।। अर्थ : पहले द्रव्य धर्म के अधिकारी दुष्कर कठोर क्रिया का आचरण करके देव आयुष्य का बंध करके देवता में पैदा होते हैं। बाद में विषय भोग की तल्लीनता के कारण नर-तिर्यंच आदि दुर्गतियों में बहुत दुःख परम्पराओं को भोगते हैं।।2।। दूसरे भाव धर्म के अधिकारी को वैमानिक देवों के सिवाय नीची कक्षा (भवनपति आदि) के देवता तक का आयुष्य प्रायः बंध नहीं होता। भाव धर्माधिकारी जीव वैमानिक देव होकर सुक्षेत्र और सुकुल में मनुष्य जन्म प्राप्त कर झटपट मोक्षगामी होता है।3।। वर्तमान व्यस्त जीवन शैली में व्यक्ति यदि थोड़ा बहुत धर्म करे, तो वह लक्ष्य भ्रष्ट न होकर शास्त्र मुजब होना चाहिए तभी लाभदायी होगा। आजकल चारों ओर धार्मिक ठगों का वर्चस्व है। इन्हें दूर करने की शक्ति हमारे में नहीं ,पर हम इनसे दूर तो रह सकते हैं। धर्म न करने की अपेक्षा धर्म की भ्रान्ति कहीं अधिक खतरनाक है। आत्मिक दृष्टि विकसित किए बिना ज्ञानी भगवन्तों की कोई बात दिमाग में बैठ पाना संभव नहीं है। पानी में नाव तिर जाती है परन्तु नाव में पानी भर जाए तो उसका डूबना निश्चित है। भगवान का श्रावक भले संसार में बैठा हो पर उसके हृदय में संसार नहीं बैठना चाहिए। संसार सुखों का आकर्षण जब तक नहीं मिटेगा तब तक धर्म की बात करना बेमानी है। सच्चा जैन कभी कीचड़ वाले तालाबों के झूठे शंखों पर नहीं रीझता अर्थात् संसार सुखों में लुब्ध नहीं होता। उसे तो जिनशासन रूपी समुद्र के रत्नत्रय सम्यक् दर्शन-ज्ञान और चारित्र ही अभीष्ट है। हम भी निरर्थक क्रियाओं, आडम्बरी साधनाओं में धर्म का भ्रम तड़ाक से तोड़कर शुद्ध धर्म का शुद्ध भाव से आराधन कर सिद्धिगति को हस्तगत करें। यही शुभेच्छा... जिनाज्ञा विपरीत लेखन के लिए अन्तःकरण से मिच्छामि दुक्कडम् । गुरुदेव ने कहा था अन्याय अनीति या हिंसा आदि से जो भी वस्तु पैसा, सत्ता या और कोई चीज प्राप्त की जाती है, असान्ति पूर्वक संचित की जाती है, वह उस व्यक्ति को ही नहीं बल्कि जिस व्यक्ति के पास वह चीज जाती है, उसकी भी बुद्धि बिगाड़ डालती है। विजय वल्लभ संस्मरण-संकलन स्मारिका 165 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012061
Book TitleVijay Vallabh Sansmaran Sankalan Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpadanta Jain, Others
PublisherAkhil Bharatiya Vijay Vallabh Swargarohan Arddhashatabdi Mahotsava Samiti
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size51 MB
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