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________________ संसार सुखों के विज्ञापन देकर त्यागी वर्ग की प्रेरणा और तारक निश्रा में यत्र-तत्र धार्मिक क्रियाकाण्डों की भरमार है। संकट मोचक, सर्वमनोवांछित पूरक, ऋद्धि सिद्धि प्रदायक, कथित महामंगलकारी इन आडम्बरों से अनादि संस्कारों से विषयानुरागी जनमानस में धधकती भौतिक सुख प्राप्ति की ज्वाला को उत्तेजन दिया जाता है। 'स्वाहा' की घंटी के साथ लाल डोरों पर गाठे मारता बेचारा भोला साधक न जाने किन-किन सपनों के सच होने की आस बांधता है। प्रभु वचनों का उपहास कर वैषयिक सुखों का अट्टहास करते इन आयोजनों में कई साधनाएँ सजोड़े (मुख्यतः पति-पत्नी) करवाई जाती हैं। इन के विधान कर्ताओं से पूछा जाए कि जिनधर्म संसार के संबंध तोड़ने के लिए है या उन्हें जन्मोजन्म प्रगाढ़ करने के लिए ?ऐसी धर्मभ्रान्त क्रियाएँ जिनाज्ञा के प्रति वफादारी है या द्रोह ? जिनाज्ञा वर्जित, संसार वृद्धि कारक, धार्मिक क्रियाओं के अपरूप, मिथ्या पाखण्डों से जब लोगों की आकांक्षा पूर्ण नहीं होती तो कुलाचार से प्राप्त धर्म श्रद्धा भी खत्म हो जाती है। ऐसे लोग अन्यमतों की ओर आकर्षित होकर जिनधर्म से भ्रष्ट हो जाते हैं। इसी कारण शास्त्रकारों ने संसार सुखों के लिए किए जाते अनुष्ठानों को गरलानुष्ठान कहा, जो जीव की धर्मश्रद्धा को मारने के लिए जहर का काम करते हैं। आज के भेष वेषविडम्बकों से हमारा यतिवर्ग इस अपेक्षा से बहुत अच्छा था कि उनके पास वास्तविक रूप में यंत्र-मंत्र की सिद्धि होती थी, जिससे वे शासनरक्षा या अमीर गरीब का भेद किए बिना धर्मासक्त श्रावकों को सहायक होते थे। वर्तमान में दुर्दशा ऐसी है कि सिद्धिशून्य सत्वहीन होने पर भी धर्मध्वजधारक लोगों को भरमाने में खासे दक्ष है। अभिमंत्रित वासक्षेप, मूर्तियां, अंगूठियां, डोरा-धागा, निमित्त ज्योतिष से धनलोभियों को मूर्ख बनाकर धन निकलवाया जाता है। आजकल के नए-नए महापूजन विधान सभी संसार को केन्द्र में रखकर करवाए जाते हैं। चमत्कारों-अंधविश्वासों का पंजा इतना सख्त है कि कहीं सांप दिख जाने पर भी विषय लोलुप जीव इतना प्रसन्न होते हैं कि मानों अधिष्ठायक ने साक्षात् होकर कोई वरदान दे दिया हो। देव का दर्शन कदापि निष्कारण ओर निष्फल नहीं होता, पर बुद्धि की बलिहारी कि चवन्नी न मिलने पर भी लोग प्रत्यक्ष दर्शन का ढिंढोरा पीटते फिरते हैं। संसार सुखों की अभिलाषा से की गई धर्मक्रियाएँ धर्म नहीं वरन् अधर्म का रूपान्तर है। 'पुत्र बिना जाके पुत्र करी रे' ऐसी अशोभनीय बातें आज धर्म का खोला ओढ़ चुकी हैं। वीतराग देव, पंचमहाव्रतधारी गुरु भगवन्त क्या कभी मैथुन सेवन में प्रेरक हो सकते हैं ?भगवान या गुरुदेव पर ऐसा आरोप उनकी अक्षम्य आशातना है, भक्ति नहीं। परमात्मा वीतराग हैं, उनके समक्ष संसार की मांग रखना उनके वीतरागत्व का अपमान है। संसारी के संसार की चिन्ता करने वाले साधु स्वयं संसारी के प्रत्येक पाप में भागीदार हो जाते हैं। गुरुभक्ति के फलस्वरूप यदि संसार की पूर्ति का आभास हो, तो यह गुरु की कृपा नहीं बल्कि अवकृपा है जो अंततः संसार बढ़ाकर दुर्गति में धक्का देने वाली है। संसार की वासना से वासित होकर किए गए धर्म से पापानुबन्धी पुण्य का बंध होता है। वर्षों की चारित्र साधना का फल मांगकर संभूति मुनि को चक्रवर्ती (ब्रह्मदत्त) का पद मिला लेकिन मात्र सात सौ वर्ष का सुख और 33 सागरोपम का सातवी नरक का भयंकर दुःख भोगेंगे। इससे विपरीत निष्काम भाव से मुनि को खीर वोहराकर शालिभद्र को अपार वैभव मिला लेकिन वह उन्हें संसार में डुबो नहीं सका, संयम में बाधक नहीं बना। यह है पुण्यानुबंधी पुण्य का सुखद स्वरूप। जैनधर्म में दुःखादि निवारण के लिए यंत्र-मंत्र स्तोत्रों की कमी नहीं है पर वह सभी मोक्षार्थी के लिए है। इनका उपयोग मोक्ष साधना के अवरोधों को टालने के लिए नियत है, न कि क्षुद्र मनोकामनाएँ पूरी करने के लिए। जिन्हें मोक्ष का स्वरूप पता नहीं, भवनिवृत्ति जिन्हें अभिलाषित नहीं ऐसे मिथ्यादृष्टि को यदि मंत्र यंत्र की साधना करवाई जाए तो 'बालहत्या पदे पदे' एक एक पद के बराबर बालहत्या का वज्रपात लगता है। चतुर्विध श्रीसंघ में सुखशान्ति, ज्ञान, आचार, संयम की वृद्धि के साथ-साथ आत्मोन्नति के लिए धर्म आराधना की जाती है। प्रतिवर्ष धर्माराधनाओं में आश्चर्यकारी वृद्धि हो रही है परन्तु खेदकि पर्वत समान आराधनाओं का जीवन में राई जितना परिणाम भी दृष्टिगोचर नहीं होता। इसका कारण आशय की मलिनता है। जब तक आशय शुद्धि अर्थात् धर्म का ध्येय मात्र मुक्ति का नहीं होगा, तब तक की जाने वाली धर्म-क्रियाएँ पानी को बिलोने की तरह व्यर्थ व्यायाम है। प्रभु दर्शन-पूजा, सामायिक, प्रतिक्रमण, तप-जप आदि स्वयं धर्म नहीं धर्म प्राप्ति के पगथिए हैं। मन के परिणामों में निर्मलता अर्थात् राग की जगह वैराग, द्वेष की जगह उपशम, क्रोध की जगह क्षमा, मान-माया-लोभ की जगह क्रमशः नम्रता, सरलता, संतोष प्राप्ति का पुरुषार्थ होना, यही जिनोक्त भाव धर्म है। वर्तमान के धर्म को एक अपेक्षा से धर्म कहा भी जाए तो वह द्रव्य धर्म है। लोकरूढि से शुभाचार रूप बिना शुद्ध श्रद्धा से की जाने वाली धर्मक्रियाएँ महापुरुषों ने सारहीन बतलाई हैं। महापुरुषों के वचन 164 विजय वल्लभ संस्मरण-संकलन स्मारिका 1504 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012061
Book TitleVijay Vallabh Sansmaran Sankalan Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpadanta Jain, Others
PublisherAkhil Bharatiya Vijay Vallabh Swargarohan Arddhashatabdi Mahotsava Samiti
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size51 MB
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