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________________ जो मन और प्राण को प्रवृत्त कर शिक्षा, उपदेश और आलाप (बातचीत) को समझते हैं समझ सकते हैं उनको संज्ञी जीव कहते हैं। जो संज्ञी से विपरीत होते हैं वे असंज्ञी कहलाते हैं। इंद्रियाँ पाँच हैं: 1. स्पर्श. 2. रसना (जीभ), 3. प्राण (नासिका), 4. चक्षु (आंख), 5. श्रोत्र (कान)। स्पर्श का काम है छूना, रसना का काम है चखना (स्वाद जानना), घ्राण का काम है सूंघना, चक्षु का काम है देखना और श्रोत्र का काम है सुनना। कीड़े, (शंख), गंड्रपद (केंचुआ), जोंक, कपर्दिका (कौडी) और (सतही नाम का जलजंत) वगैरा अनेक तरह के दोइंद्रिय जीव हैं। यूका (जू) मत्कुण (खटमल), मकोड़ा और लीख वगैरा तीनइंद्रिय जीव है। पतंग (फतंगा), मक्खी, भौंरा, डाँस वगैरा प्राणी चार इंद्रिय हैं। जलचर (मछली, मगर वगैरा जल के जीव), स्थलचर (गाय भैंस वगैरा पशू), खेचर (कबूतर, तीतर, कौवा वगैरा पंखी), नारकी (नरक में पैदा) होने वाले), देव (स्वर्ग में पैदा होने वाले) और मनुष्य ये सभी पंचेन्द्रिय जीव हैं। ऊपर कहे हुए जीवों की (मार कर) आयु समाप्त करना, उनके (शरीर को) दुःख देना और उनके (मन को) क्लेश पहुँचाने का नाम बध करना (हिंसा करना) है और वध नहीं करने का नाम अभयदान है। जो अभयदान देता है वह चारों पुरुषार्थों (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) का दान करता है। कारण, बचा हुआ जीव चारों पुरुषार्थ प्राप्त कर सकता है। प्राणियों को राज्य, साम्राज्य और देवराज्य की अपेक्षा भी जीवन अधिक प्रिय होता है। इसी से कीचड़ के कीड़े को और स्वर्ग के इंद्र को प्राण-नाश का भय समान होता है। इसलिए सुबुद्धि पुरुष को चाहिए कि वह सदा सावधान रहकर अभयदान की प्रवृत्ति करे। अभयदान देने से मनुष्य परभव में मनोहर, दीर्घायु, तन्दरुस्त, कांतिवान, सुडोल और बलवान होता है। धर्मोपग्रहदान पाँच तरह का होता है, 1. दायक (दान देने वाला) शुद्ध हो, 2. ग्राहक (दान लेने वाला) शुद्ध हो, 3. देय (दान देने की चीज) शुद्ध हो, 4. काल (समय) शुद्ध अच्छा हो, 5. भाव शुद्ध हो। दान देने वाला वह शुद्ध होता है जिसका धन न्यायोपार्जित हो, जिसकी बुद्धि अच्छी ,हो जो किसी आशा से दान न देता हो, जो ज्ञानी हो (वह दान क्यों दे रहा है इस बात को समझता हो) और देने के बाद पीछे से पछताने वाला न हो। वह यह मानने वाला हो कि ऐसा चित्त (जिसमें दान देने की इच्छा है) ऐसा वित्त (जो न्यायोपार्जित है) और ऐसा पात्र (शुद्ध दान लेने वाला) मुझको मिला इससे मैं कृतार्थ हुआ हूँ। दान लेने वे शुद्ध होते हैं जो सावद्ययोग से विरक्त होते हैं (पापरहित होते हैं), जो तीन गौरव (1. रसगौरव, 2. ऋद्धि गौरव, 3. साता गौरव) रहित होते हैं। तीन गुप्तियाँ धारण करने वाले और पाँच समितियाँ पालने वाले होते हैं। जो राग-द्वेष से मुक्त होते हैं, जो नगर, गाँव, स्थान, उपकरण और शरीर में ममता नहीं रखने वाले होते हैं, जो अठारह हजार शीलांग को धारण करने वाले होते हैं; जो रत्नत्रय (सम्यक्-ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र) के धारण करने वाले होते हैं ,जो धीर और लोहा व सोने में समान दृष्टि वाले होते हैं, धर्मध्यान और शुक्लध्यान में जिनकी स्थिति होती है, जो जितेंद्रिय, कुक्षिसंबल (आवश्यकतानुसार भोजन करने वाले), सदा शक्ति के अनुसार छोटे-छोटे तप करने वाले, सत्रह तरह के संयम को अखंड रूप से पालने वाले और अठारह तरह का ब्रह्मचर्य पालने वाले होते हैं। ऐसे शुद्धदान लेने वालों को दान देना 'ग्राहक शुद्धदान' या 'पात्रदान' कहलाता है। देय शुद्धदान-देने लायक, 42 दोषरहित अशन (भोजन, मिठाई, पूरी वगैरा) पान (दूध-रस वगैरा), खादिम (फल मेवा वगैरा), स्वादिम (लौंग, इलायची वगैरा), वस्त्र और संथारा (सोने लायक पाट वगैरा) का दान, वह देय शुद्ध दान कहलाता है। योग्य समय पर पात्र को दान देना 'पात्रशुद्धदान' है और कामना रहित (कोई इच्छा न रखकर) दान देना 'भाव-शुद्धदान' है। शरीर के बिना धर्म की आराधना नहीं होती और अन्नादि बिना शरीर नहीं टिकता। इसलिए धर्मोपग्रह (जिससे धर्म साधन में सहातय मिले ऐसा) दान देना चाहिए। जो मनुष्य अशनपानादि धर्मोपग्रहदान सुपात्र को देता है, वह तीर्थ को अविच्छेद (स्थिर) करता है और परमपद (मोक्ष) को पाता है। "शीलं सावद्ययोगानां प्रत्याख्यानं निगद्यते।" "जिस प्रवृत्ति से (काम से) प्राणियों को हानि हो ऐसी प्रवृत्ति नहीं करना शील है। उसके दो भेद हैं- 1. देशविरति, 2. सर्वविरति। देशविरति के बारह भेद हैं, पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत।" स्थूल अहिंसा, स्थूल सत्य, स्थूल अस्तेय (अचौर्य), स्थूल ब्रह्मचर्य, और स्थूल अपरिग्रह ये पाँच अणुव्रत जिनेश्वर ने कहे हैं। दिविरति, भोगोपभोगविरति और अनर्थदंडविरति ये तीन गुणव्रत हैं। सामायिक, देशावकाशिक, पौषध और अतिथिसविभाग ये चार शिक्षाव्रत हैं। 1500 161 विजय वल्लभ संस्मरण-संकलन स्मारिका FOOFIVIDEOrgutte JD Edustiatriciternationilo awwvijainelibrary.org
SR No.012061
Book TitleVijay Vallabh Sansmaran Sankalan Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpadanta Jain, Others
PublisherAkhil Bharatiya Vijay Vallabh Swargarohan Arddhashatabdi Mahotsava Samiti
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size51 MB
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