SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 528
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सुवर्णभूमि में कालकाचार्य __ १२५ पालगरएणो सही, पुण पराणसयं वियाणि णंदाणम् । मुरियाणं सहिसयं, पणतीसा पूसमित्ताणम् (त्तस्स)॥६२१ ।। बलमित्त-भाणुमित्ता, सही चत्ताय होंति नहसेणे। गद्दभसयमेगं पुण, पडिवन्नो तो सगो राया॥६२२॥ पंच य मासा पंच य वासा, छच्चेव होंति वाससया। परिनिव्वुअस्सऽरिहतो, तो उप्पन्नो (पडिवन्नो) सगो राया॥ ६२३ ॥ इस तरह शक संवत् जो ई० स० ७८ से शुरू होता है उसको चलाने वाले शकराजा के पूर्व १०० वर्ष गई भिल्लों के, ४० वर्ष नभःसेन के और ६० वर्ष बलमित्र के बताये गये हैं। दिगम्बर तिलोयपण्पत्ति में भी ऐसी कालगणना मिलती है किन्तु कुछ फर्क के साथ जक्काले वीरजिणो निःसेससंपयं समावण्णो। तक्काले अभिसित्तो पालयणाम अवंतिसुदो॥ १५०५ ॥ पालकरज्जं सहिं इगिसयपणवण्णा, विजयवंसभवा । चालं मुरुदयवंसा तीस वस्सा सुपुस्समित्तम्मि॥ १५०६॥ वसुमित्त अग्गिमित्ता सही गंधव्वया वि सयमेक्कं । परवाहणा य चालं तत्तो भत्थठणा जादा ॥ १५०७॥ भत्थहणाण कालो दोण्णि सयाई वंति वादाला। ७० जिनसेनाचार्य के हरिवंशपुराण ७८ में यही गणना मिलती है जिसके अनुसार पालक के ६० वर्ष, विजयवंश या नंदवंश के १५५ वर्ष, मरुदय या मौर्यों के ४० वर्ष, पुष्यमित्र के ३०, वसुमित्र-अग्निमित्र के ६०, गंधर्व या रासभों के १०० और नरवाहन के ४० वर्ष दिए गये हैं। उसके बाद भत्थट्टाण(भृत्यान्ध्र) राजा हुए जिनका काल २४२ वर्ष का होता है। दिगम्बर परम्परा को यहाँ स्पर्श किया है इससे प्रतीत होगा कि उनकी कालगणना में भी कुछ गड़बड़ है। क्यों कि मौर्यों के ४० वर्ष लिखे गये हैं वह ठीक नहीं। श्री काशीप्रसाद जयस्वालजी ने श्वेताम्बर काल-गणनाओं की समीक्षा करते हुए बतलाया कि मौर्यों के कमी किये गये वर्ष रासभों (गई भिल्लों) ७६. वीरनिर्वाणसम्वत् और जैमकालगणना के. पृ. ३०-३१ पर मुनिश्री कल्याणविजयजी ने ये गाथायें उद्धृत की हैं। तित्थोगाली की उपलब्ध प्रतियाँ अशुद्ध हैं। वही, पृ० ३१ पादनोंध में मुनिश्री ने दुःषमगडिका और युगप्रधान-गंडिका का सार दिया है। दूसरी गणनाओं से उसकी सङ्गति करना मुश्किल है। किसी भी तरह शकसंवत् को वीरात् ६०५ तक ला ही जाता मगर बीच के राजाओं की कालगणना में गड़बड़ी हो जाती है। इस विषय में बहुत से विद्वानों ने चर्चा की है। यहाँ हम इन सबका सार भी लें तो वक्तव्य का विस्तार खूब बढ़ जाएगा। और यह सब चर्चा विद्वानों को सुपरिचित है ही। ७७. तिलोयपण्पत्ति, भाग, पृ० ३४२, कसायपाहुड, भाग १, प्रस्तावना, पृ० ५०-५५ में उद्धृत की गई है किन्तु परस्पर विरोधात्मक कालगणनाओं का अभी तक संतोषजनक समाधान नहीं हुआ है। ७८. डा. जयस्वाल, जर्नल ऑफ ध बिहार-ओरिस्सा रिसर्च सोसायटी, वॉल्युम १६, पृ० २३४-२३५. वही, कल्पना मुनिश्री कल्याणविजयजी भी करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012060
Book TitleVijay Vvallabhsuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Vidyalaya Mumbai
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1956
Total Pages756
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy