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________________ १२२ श्राचार्य विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ गईभिल्ल के, बलमित्र के, या शकों के राज्य के वर्ष श्रादि नहीं दिये गये। किन्तु गईभिल्लोच्छेद के बाद अवन्ति में कौन राजा हुअा इस विषय में करीब सब कथानकों और प्राचीन संदर्मों का निर्देश यही है कि गईंभिल्ल के बाद शक राजा हुअा। उसके बाद बलमित्र अवन्ति का राजा हुअा? और ऐसा हुअा तो कब हुआ? इन सब बातों का निश्चय करना मुश्किल है क्यों कि चतुर्थीकरणावाली घटना गर्दभिल्लोच्छेद के पूर्व या पश्चात् हुई उसका पक्का पता नहीं लगता। अगर बाद में हुई-जैसा कि ज्यादह सम्भव है-तब भी बलमित्र अवन्ति-उजयिनी में राजा था या भरुकच्छ में? इस विषय में मतभेद रहेगा। मान लें कि उस समय बलमित्र उज्जयिनी में था तब भी उसके बाद कौन राजा हुआ? कथानकों के अस्पष्ट उल्लेखों का सारांश तो यह है कि उस शकराजा से जो वंश चला वह शककुल-शकवंश नाम से प्रसिद्ध हुश्रा और कालान्तर में उस वंश का उन्मूलन विक्रम ने किया। उसके (विक्रम के) वंश के बाद फिर शक राजा हुश्रा जिसका शकसंवत् (ई० स०७८ से) चला। इस संवत् और विक्रम संवत् में १३५ वर्ष का अन्तर है। कोई संदर्भ या कथा यह नहीं कहती कि बलमित्र यही विक्रमादित्य है। बलमित्र को विक्रमादित्य गिनने से गर्दभिल्लोच्छेदक कालक का समय जो वास्तव में वीरात् ३३५-३७६ अासपास है उसको हठाकर वीरात् ४५३ मानना पड़ता है और वीरात् ४५३ और ४७० के बीच बलमित्र, नमःसेन, और शकराजा के राज्यवर्ष घटाने पड़ते हैं। ७५ यहाँ अब हम पहले तो तित्थोग्गाली पहनय के उल्लेख को देखें "ज रयणिं सिद्धिगत्रो, अरहा तित्थंकरो महावीरो। तं रयणिमवंतीए, अभिसित्तो पालश्रो राया ॥६२०॥ फिर आगे चतुर्थीकरणवाली घटना में लिखा है बलमित्त-माणुमित्ता, आसी अवंतीइ राय-जुवराया। विति परे भरुअच्छे, कालयसूरी वि तत्थ गो ॥ ४७ ॥ -वही पृ० ५५ ७५. देवचन्द्रसूरि-रचित कथानक ( रचना सं० ११४६ = १०८६ ई०स०) में कहा गया है " सगकूलाओ जेणं समागया तेण ते सगा जाया। एवं सगराईणं, एसो वंसो समुप्पण्णो ।। ६२ ।। कालंतरेण केणइ, उप्पाडेत्ता सगाण तं वंसं । जाओ मालवराया, णामेणं विक्कमाइच्चो ॥ ६४ ॥ पयराविओ धराए रिणपरिहीणं जणं विहेऊण । गुरुरत्थवियरणाओ णियओ संवच्छरो जेण ।। ६७ ॥ तस्स वि वसं उप्पाडिऊण जाओ पुणो वि सगराया। उज्जेणिपुरवरीए, पयपंकय पणयसामंतो ॥६॥ पणतीसे वाससए, विक्कमसंवच्छराओ वोलीणे। परिवत्तिऊण ठविओ, जेणं संवच्छरो णियगो ॥ ७० ॥ - नवाब प्रकाशित, कालकाचार्यकथा, पृ० १३. इसी मतलब का विधान मलधारि श्री हेमचन्द्रसूरि (वि० सं० १२ शताब्दि ) विरचित कथानक में है, दखो नवाब, वही, पृ० ३०। वही, पृ० ८१ पर भावदेवसूरि (वि० सं० १३१२ = १२५५ ई० स०) भी इसी मतलब का विधान करते हैं। वही, पृ० ६३ पर श्री धर्मप्रभसूरि (वि. सं. १३९८ ) भी ऐसा उल्लेख करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012060
Book TitleVijay Vvallabhsuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Vidyalaya Mumbai
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1956
Total Pages756
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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