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________________ सुवर्णभूमि में कालकाचार्य विज्सा श्रोरसवली, तेयसलद्धी सहायलद्धी वा । उप्पादेउं सासति, प्रतिपंतं कालकज्जो वा ॥ ५५६३ ॥ -वृहत्कल्पसूत्र, विभाग ५, ४. १४८० उपर्युक्त भाष्य-गाथा कालकाचार्य ने विद्या- ज्ञान से गर्दभिल्ल का नाश करवाया इस बात की सूचक है और टीका से यह स्पष्ट होता है। बृहत्कल्पभाष्य-गाथा ई० स० ५०० से ई० स० ६०० के बीच में रवी हुई मालूम होती है। और जैन परम्परा के अनुसार कालक और गर्दभ का प्रसंग ई० पू० स० ७४-६० आसपास हुआ माना जाता है । ६३ देखना यह है कि सागरश्रमण के दादागुरु श्रार्य कालक और गर्द भिल्ल - विनाशक ार्य कालक एक हैं या भिन्न । बृहत्कल्प भाष्यकार इन दोनों वृत्तान्तों की सूचक गाथानों में दो अलग अलग कालक होने का कोई निर्देश नहीं देते। अगर दोनों वृत्तान्त भिन्न भिन्न कालकपरक होते तो ऐसे समर्थ प्राचीन ग्रन्थकार जुरूर इस बात को बतलाते टीकाकार या चूर्णिकार भी ऐसा कुछ बतलाते नहीं और न ऐसा निशीथचूर्णिकार या किसी अन्य चूर्णिकार या भाष्यकार बतलाते हैं। क्यों कि इनको तो सन्देह उत्पन्न ही न हुआ कि सागर के दादागुरु कालक गईंभ विनाशक आर्य कालक से भिन्न हैं जैसा कि हमारे समकालीन पण्डितों का अनुमान है। बृहत्कल्पभाष्य और चूर्णि में मिलती कालक के सुवर्णभूमि-गमन वाली कथा में कालक के 'अनुयोग' को उज्जैनवाले शिष्य सुनते नहीं थे ऐसा कथन है। आखिर में सुवर्णभूमि में भी कालक ने शिष्य-प्रशिष्यों को अनुयोग का कथन किया ऐसा भी इस वृत्तान्त में बताया गया है।" यहां कालक के रचे हुए अनुयोग प्रन्थों का निर्देश है। ' अनुयोग' शब्द से सिर्फ 'व्याख्यान' या 'उपदेश' अर्थ लेना ठीक नहीं । व्याख्यान करना या उपदेश देना तो हरेक गुरु का कर्तव्य है और वह वे करते हैं और शिष्य उन व्याख्यानों को सुनते भी हैं। यहाँ क्यों कि कालक की नई ग्रन्थरचना थी इसी लिए पुराने खयालवाले शिष्यों में कुछ श्रश्रद्धा थी। चूर्णिकार और टीकाकार ने ठीक समझ कर अनुयोग शब्द का प्रयोग किया है। Jain Education International हम आगे देखेंगे कि कालक ने लोकानुयोग और गण्डिकानुयोग की रचना की थी ऐसा पञ्चकल्पभाध्य का कथन है। इसी पञ्चकल्पभाष्य का स्पष्ट कथन है कि अनुयोगकार कालक ने जीविकों से निमित्तज्ञान प्राप्त किया था। इस तरह सुवर्णभूमि जाने वाले कालक पञ्चकल्पनिर्दिष्ट अनुयोगकार कालक ही हैं और वे निमित्तशानी भी थे। गर्दभ विनाशक कालक भी निमित्तशानी थे ऐसा निशीथचूर्णिगत वृत्तान्त से स्पष्ठतया फलित होता है। इस तरह निमित्तशानी अनुयोगकार श्रार्य कालक और निमित्तशानी गर्दभ- विनाशक आर्य काल भिन्न नहीं किन्तु एकही व्यक्ति होना चाहिये क्यों कि दोनों वृत्तान्तों के नायक श्रार्य कालक नामक व्यक्ति हैं और निमित्तज्ञानी हैं। पहले हम कह चूके हैं कि प्राचीन ग्रन्थकारों ने दो ४. विशेष चर्चा के लिए देखो मुनिश्री पुण्यविजयजी लिखित प्रस्तावना, वृहत्कल्पसूत्र, विभाग ६, पृ० २०-२३. × | ” ५. देखो - " ताहे अज्जकालया चिंतेंति-- एए मम सीसा अणुओोगं न सुगंति x x और, “ ताहे मिच्छा दुक्कडं करित्ता श्राढत्ता अज्जकालिया सीसपससाण अणुयोगं कहेउं । " -- बृहत्कल्पसूत्र, विभाग १, पृ०७३-७४. ६. देखो, निशीथचूर्ण, दशम उद्देश में कालक- वृत्ताना" तस्थ एवो साहि ति राया भण्यति । तं समयो सिमितादिहिं आहेत " |-- नवाब प्रकाशित, कालिकाचार्य कथा, संदर्भ १, पृ० १. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012060
Book TitleVijay Vvallabhsuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Vidyalaya Mumbai
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1956
Total Pages756
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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