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________________ १२ आचार्य विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ मिला : नहीं मगर दूसरे वृद्ध आये हैं। पृच्छा हुई : कैसे हैं ? (फिर वृद्ध को देख कर) यही प्राचार्य हैं ऐसा कह कर उनको वन्दन किया। तब सागर बड़े लज्जित हुए और सोचने लगे कि मैंने बहुत प्रलाप किया और क्षमाश्रमणजी (आर्य कालक) से मेरी वन्दना भी करवाई। इस लिए "आपका मैंने अनादर किया" ऐसा कह कर अपराह्नवेला के समय " मिथ्या दुष्कृतं मे” ऐसे निवेदनपूर्वक क्षमायाचना की। फिर वह प्राचार्य को पूछने लगा : हे क्षमाश्रमण ! मैं कैसा व्याख्यान करता हूँ? प्राचार्य बोले : सुन्दर, किन्तु गर्व मत करो। फिर उन्होंने धूलि-पुञ्ज का दृष्टान्त दिया। हाथ में धूलि लेकर एक स्थान पर रख कर फिर उठा कर दूसरे स्थान पर रख दिया, फिर उठा कर तीसरे स्थान पर। और फिर बोले कि जिस तरह यह धूलिपुञ्ज एक स्थान से दूसरे स्थान रक्खा जाता हुआ कुछ पदार्थों (अंश) को छोड़ता जाता है, इसी तरह तीर्थङ्करों से गणधरों और गणधरों से हमारे प्राचार्य तक, प्राचार्य-उपाध्यायों की परम्परा में आये हुए श्रुत में से कौन जान सकता है कि कितने अंश बीच में गलित हो गये? इस लिए तुम (सर्वज्ञता का--श्रत के पूर्ण विज्ञाता होने का) गर्व मत करो। फिर जिनसे सागर ने “मिथ्या दुष्कृत" पाया है और जिन्होंने सागर से विनय अभिवादन इत्यादि पाया है ऐसे आर्य कालक ने शिष्य-प्रशिष्यों को अनुयोगज्ञान दिया। मलयगिरिजी का दिया हुअा यह वृत्तान्त निराधार नहीं है। पहले तो उनके सामने परम्परा है; और दूसरा यह सारा वृत्तान्त मलयगिरिजी ने प्राचीन बृहत्कल्प-चूर्णि से प्रायः शब्दशः उद्धत किया है। सूत्र के बाद नियुक्ति, तदनन्तर भाष्य और तदनन्तर चूर्णि की रचना हुई। फिर एक और महत्त्वपूर्ण अाधार उत्तराध्ययन-नियुक्ति का भी है जिस में सुवर्णभूमि में सागर के पास कालकचार्य के जाने का उल्लेख है-“उज्जेणि कालखमणा सागरखमणा सुवर्णभूमीए" (उत्तराध्ययन-नियुक्ति, गाथा १२०). उत्तराध्ययन-चूर्णि में यही वृत्तान्त मिलता है। खुद बृहत्कल्प-भाष्य में कालक-सागर और कालक-गर्दभिल्ल का निर्देश तो है किन्तु उपलब्ध ग्रन्थ में नियुक्ति और भाष्य गाथाओं के मिल जाने से इस बात का निश्चय नहीं किया जाता उपर्युक्त गाथा नियुक्ति-गाथा है या भाष्य-गाथा। अगर नियुक्ति-गाथा है तब तो यह वृत्तान्त कुछ ज्यादा प्राचीन है। उत्तराध्ययन नियुक्ति की साक्षी भी यही सूचन करती है। यह एक महत्त्वपूर्ण उल्लेख है जिस की ओर उचित ध्यान नहीं दिया गया। पहिले तो भारत की सीमा से बाहिर, अन्य देशों में जैन धर्म के प्रचार का प्राचीन विश्वसनीय यह पहला निर्देश है। बृहत्कल्पभाष्य ईसा की ६ वीं सदी से अर्वाचीन नहीं है यह सर्वमान्य है। और दूसरा यह कि अगर यह वृत्तान्त उन्ही आर्य कालक का है जिनका गर्दभिल्लों और कालक वाली कथा से सम्बन्ध है तब सुवर्णभूमि में जैन धर्म के प्रचार की तवारिख हमें मिलती है। कालक और गर्दभिल्लों की कथा कम से कम चूर्णि-ग्रन्थों से प्राचीन तो है ही, क्यों कि दशाचूर्णि और निशीथ-चूर्णि में ऐसे निर्देश हमें मिलते हैं। और इसी बृहत्कल्पभाष्य में भी निम्नलिखित गाथा है जिसका हमें खयाल करना चाहिये २. उत्तराध्ययन-चूर्णि (रतलाम से प्रकाशित), पृ० ८३-८४, ३. कालकाचार्य कथा (प्रकाशक, श्री. साराभाई नवाब, अहमदाबाद) पृ० १-२ में निशीथचूर्णि, दशम उद्देश से उद्धृत प्रसंग. दशाचूर्णि, व्यवहार-चूर्णि और बृहत्कल्पचूर्णि में से कालक-विषयक अवतरणों के लिए देखो, वही, पृ. ४-५. वही, पृ. ३६-३८ में भद्रेश्वरकृत कहावली में से कालक-विषयक उल्लेखों के अवतरण है। कहावली वि० सं०८००-८५० की रचना है। इस विषय में देखो, श्री उमाकान्त शाह का लेख, जैन सत्य-प्रकाश, (अहमदाबाद) वर्ष १७, अंक ४, जान्युपारी १९५२, पृ० ८६ से आगे. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012060
Book TitleVijay Vvallabhsuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Vidyalaya Mumbai
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1956
Total Pages756
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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