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________________ ५२ श्राचार्य विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ बन शारीरिक सुखों के पीछे. लगने से आत्मविकास असंभव है। इसीलिए साधक के जीवन में संयम आवश्यक है। संयम का पालन करनेवाले के जीवन में त्याग का बहुत महत्त्व है। जो अपने जीवन को विकसित करना चाहे उसके लिए संकल्प-व्रत-नियम का महत्त्व है। बुरी बातों का त्याग और अच्छी बातों का संकल्प या दृढ निश्चय बहुत मददगार होता है। परंतु त्याग बिना संतोष के संभव नहीं। इसलिए अकिंचन वृत्ति को अपनाना आवश्यक है। वह परिग्रह की मर्यादा के बिना पा नहीं सकती। सभी संत कहते हैं कि लोभ सभी गुणों का नाश करनेवाला होता है। विकास अकिंचन वृत्ति के बिना हो नहीं सकता। परिग्रह मर्यादा या अकिंचन वृत्ति आत्मचर्या में लीन बने बिना संभव नहीं। आत्मा में मगन होने पर श्रानंद पाने की कला हासिल हो सकती है। तभी बाह्य परिग्रह का त्याग संभव है। क्योंकि बिना अानंद के या सुख के कोई रह नहीं सकता। प्रश्न है यह सुख भौतिक-बाह्य-वस्तुत्रों से प्राप्त करे या श्रात्मा से। अनुभवियों का कहना है कि भौतिक सुखों से आत्मिक सुख श्रेष्ठतर और अधिक टिकनेवाले होता है, इसलिए उसे प्राप्त करने का प्रयत्न हो। प्रात्मरमण ही सच्चा ब्रह्मचर्य है। जैन साधना में तप का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। शरीर को कस कर अपने अधीन बनाना और चित्त को निर्मल बनाना तप का उद्देश्य है । तप का अर्थ शरीरकष्ट नहीं। वही तप साधना में सहायक होता है जिससे शरीर और मन की प्रसन्नता बढ़े। तप के दो भेद हैं: बाह्य और अभ्यंतर। अनशन, ऊनोदरता, वृत्ति परिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त शय्यासन और कायक्लेश बाह्य में तथा प्रायश्चित्त, विनय, सेवा परिचर्या, स्वाध्याय, व्युसर्ग और ध्यान अभ्यंतर तप में हैं। ... जब साधक अप्रमत्त बनकर निर्मल चित्त बनाकर साधना करता है तो वह अपने साध्य तक पहुंचता है। साधक यथाशक्ति प्रयत्न करे यही जैन दर्शन की अपेक्षा है।। R TEMBER SARAN Manunmunaraa r LUOTE Kare T CELL SIICIAL + AISE- SHARPES .. SERVE Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012060
Book TitleVijay Vvallabhsuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Vidyalaya Mumbai
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1956
Total Pages756
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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