SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 426
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६ स्वाद्वाद पर कुछ श्राक्षेप और उनका परिहार का भिन्न भिन्न प्राश्रय न होने से दोनों एकरूप हो जाएंगे। भेद और अभेद की एकरूपता का अर्थ होगा संकर दोष । ___ स्याद्वाद को संकर दोष का सामना तब करना पड़ता जब भेद अभेद हो जाता या अभेद भेद हो जाता। श्राश्रय एक होने का अर्थ यह नहीं होता कि आश्रित भी एक हो जाएं। एक ही आश्रय में अनेक आश्रित रह सकते हैं। एक ही ज्ञान में चित्रवर्ण का प्रतिभास होता है (बौद्ध), फिर भी सब वर्ण एक नहीं हो जाते। एक ही वस्तु में सामान्य और विशेष दोनों रहते हैं (नैयायिक-वैशेषिक), फिर भी सामान्य और विशेष एक नहीं हो जाते। भेद और अभेद का आश्रय एक ही पदार्थ है किन्तु वे दोनों एक नहीं हैं। यदि वे एक होते तो एक ही की प्रतीति होती, दोनों की नहीं। जब दोनों की भिन्न भिन्न रूप में प्रतीति होती है तब उन्हें एकरूप कैसे कहा जा सकता है ? ५. जहां भेद है वहां अभेद भी है और जहां अभेद है वहां भेद भी है। दूसरे शब्दों में जो भिन्न है वह अभिन्न भी है और जो अभिन्न है वह भिन्न भी है। भेद और अभेद दोनों परस्पर बदले जा सकते हैं। इसका परिणाम यह होगा कि स्याद्वाद को व्यतिकर दोष का सामना करना पड़ेगा। जिस प्रकार संकर दोष स्यावाद पर नहीं लगाया जा सकता उसी प्रकार व्यतिकर दोष भी स्याद्वाद का कुछ नहीं बिगाड़ सकता। दोनों धर्म स्वतन्त्ररूप से वस्तु में रहते हैं और उनकी प्रतीति उभयरूप से होती है। ऐसी दशा में व्यतिकर दोष की कोई सम्भावना नहीं रहती। जब भेद की प्रतीति स्वतन्त्र है और अभेद की स्वतन्त्र, तब भेद और अभेद के परिवर्तन की आवश्यकता ही क्या है ? ऐसी स्थिति में व्यतिकर दोष का कोई अर्थ नहीं। भेद का भेद रूप से ग्रहण करना और अभेद का अभेद रूप से ग्रहण-यही स्याद्वाद का अर्थ है। वहां व्यतिकर जैसी कोई चीज ही नहीं है। ६. तत्त्व के भेदाभेदात्मक होने से किसी निश्चित धर्म का निर्णय नही हो सकेगा। जहां किसी निश्चित धर्म का निर्णय नहीं होगा वहां संशय उत्पन्न होगा और जहां संशय होगा वहां तत्त्व का शान ही नहीं हो सकता। यह दोष भी व्यर्थ है। भेदाभेदात्मक तत्त्व का भेदाभेदात्मक ज्ञान होना संशय नहीं है। संशय तो वहां होता है जहां यह निर्णय न हो कि तत्त्व भेदात्मक है या अभेदात्मक है या भेद और अभेद उभयात्मक है ? जब यह निर्णय हो रहा है कि तत्त्व भेद और अभेद उभयात्मक है, तब यह कैसे कहा जा सकता है कि किसी निश्चित धर्म का निर्णय नहीं होगा। जहां निश्चित धर्म का निर्णय है वहां संशय पैदा नहीं हो सकता। जहां संशय नहीं, वहां तत्त्वज्ञान होने में कोई बाधा ही नहीं। इसलिए संशयाश्रित जितने भी दोष हैं, स्याद्वाद के लिए सब निरर्थक हैं। ७. स्याद्वाद एकान्तवाद के बिना नहीं रह सकता। स्याद्वाद कहता है कि प्रत्येक वस्तु या धर्म सापेक्ष है। सापेक्ष धर्मों के मूल में जबतक कोई ऐसा तत्त्व न हो जो सब धर्मों को एकसूत्र में बांध सके तब तक वे धर्म टिक ही नहीं सकते। उन को एकता के सूत्र में बांधने वाला कोई न कोई तत्त्व अवश्य होना चाहिए जो स्वयं निरपेक्ष हो। ऐसे निरपेक्ष तत्त्व की सत्ता मानने पर स्याद्वाद का यह सिद्धान्त कि प्रत्येक वस्तु सापेक्ष है, खण्डित हो जाता है। - - ‘स्याद्वाद जो वस्तु जैसी है उसे वैसी ही देखने के सिद्धान्त का प्रतिपादन करता है। सब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012060
Book TitleVijay Vvallabhsuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Vidyalaya Mumbai
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1956
Total Pages756
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy