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________________ २८ आचार्य विजय वल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ मानने में क्या हानि है ? नैयायिक चित्रवर्ण की सत्ता मानते ही हैं। एक ही वस्त्र में संकोच और विकास हो सकता है, एक ही वस्त्र रक्त और रक्त हो सकता है, एक ही वस्त्र पिहित और पिहित हो सकता है। ऐसी दशा में एक ही पदार्थ में भेद और भेद, नित्यता और अनित्यता और एकता और अनेकता की सत्ता क्यों विरोधी मानी जाती है, यह समझ में नहीं आता। इसलिए स्याद्वाद पर यह आरोप लगाना कि वह परस्पर विरोधी धर्मों को एकत्र आश्रय देता है, मिथ्या है। स्याद्वाद प्रतीति को यथार्थ मान कर ही आगे बढ़ता है। प्रतीति में जैसा प्रतिभास होता है और जिसका दूसरी प्रतीति से खण्डन भी नहीं होता, वही निर्णय यथार्थ है - श्रव्यभिचारी है - श्रविरोधी है। २. यदि वस्तु भेद और मेद का आश्रय उससे भिन्न । वस्तु द्विरूप हो जाएगी। भेद उभयात्मक है तो भेद का श्राश्रय भिन्न होगा और ऐसी दशा में वस्तु की एकरूपता समाप्त हो जाएगी, एक ही यह दोष भी निराधार है । भेद और अभेद का भिन्न भिन्न आश्रय मानने की कोई आवश्यकता नहीं । जो वस्तु भेदात्मक है वही वस्तु श्रभेदात्मक है। उसका जो परिवर्तन धर्म है, वह भेद की प्रतीति का कारण है । उसका जो धौव्य धर्म है, वह अभेद की प्रतीति का कारण है। ये दोनों धर्म अखण्ड वस्तु धर्म हैं। ऐसा कहना ठीक नहीं कि वस्तु का एक अंश भेद या परिवर्तनधर्म वाला है और दूसरा अंश भेद या धान्यधर्मयुक्त है। वस्तु के टुकड़े टुकड़े करके अनेक धर्मों की सत्ता स्वीकृत करना स्याद्वादी को इष्ट नहीं। जब हम वस्त्र को संकोच और विकासशील कहते हैं तब हमारा तात्पर्य एक ही वस्त्र से होता है । वही वस्त्र संकोचशाली होता है और वही विकासशाली । यह नहीं कि उसका एक हिस्सा संकोचधर्म वाला है और दूसरा हिस्सा विकासधर्म वाला है। वस्तु के दो अलग अलग विभाग करके भेद और भेदरूप दो भिन्न भिन्न धर्मों के लिये दो भिन्न भिन्न श्राश्रयों की कल्पना करना स्याद्वाद की मर्यादा के बाहर है। वह तो एकरूप वस्तु को ही श्रनेकधर्मयुक्त मानता है । ३. वह धर्म जिसमें भेद की कल्पना की जाती है और वह धर्म जिसमें अभेद स्वीकृत किया जाता है:- उन दोनों में क्या सम्बन्ध होगा ? दोनों परस्पर भिन्न हैं या अभिश्न ? भिन्न मानने पर पुनः यह प्रश्न उठता है कि वह भेद जिसमें रहता है उससे वह भिन्न है या अभिन्न ? इस प्रकार अनवस्था का सामना करना पड़ेगा । श्रभिन्न मानने पर भी यही दोष आता है। यह अभेद जिसमें रहेगा वह उससे भिन्न या है अभिन्न ? दोनों अवस्थाओं में पुनः सम्बन्ध का प्रश्न खड़ा होता है। इस प्रकार किसी भी अवस्था में अनवस्था से मुक्ति नहीं मिल सकती । अनवस्था के नाम पर यह दोष भी स्याद्वाद के सिर पर नहीं मढ़ा जा सकता। जैन दर्शन यह नहीं मानता कि भेद अलग है और वह भेद जिसमें रहता है वह धर्म अलग है। इसी प्रकार जैन दर्शन यह भी नहीं मानता कि भेद भिन्न है और भेद जिसमें रहता है वह धर्म उससे भिन्न है । वस्तु के परिवर्तनशील स्वभाव को ही भेद कहते हैं और उसके परिवर्तनशील स्वभाव का नाम ही भेद है। भेद नामक कोई पदार्थ कर उससे सम्बन्धित होता हो और उसके सम्बन्ध से वस्तु में भेद की उत्पत्ति होती हो, ऐसी बात नहीं है। इसी प्रकार अभेद भी कोई स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है जो किसी सम्बन्ध से वस्तु में रहता हो । वस्तु स्वयं ही भेदाभेदात्मक है। ऐसी दशा में इस प्रकार के सम्बन्ध का प्रश्न ही नहीं उठता। जब सम्बन्ध का प्रश्न ही व्यर्थ है तत्र अनवस्था दोष की व्यर्थता स्वतः सिद्ध है, यह कहने की कोई आवश्यकता नहीं । ४. जहां भेद है वहीं अभेद है और जहां अभेद है वहीं भेद है। भेद और अभेद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012060
Book TitleVijay Vvallabhsuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Vidyalaya Mumbai
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1956
Total Pages756
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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