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________________ भारत की एक महान विभूति महता श्री शिखरचन्द्र कोचर, बी. ए., एल एल. बी., आर. जे. एस्. साहित्य-शिरोमणि, साहित्याचार्य प्रातःस्मरणीय जैनाचार्य श्रीमद्विजयवल्लभसूरीश्वरजी महाराज केवल जैन-समाज की ही नहीं, अपितु अखिल भारतवर्ष की एक महान् विभूति थे। संवत् १६४४ में केवल सत्रह वर्ष की अल्पायु में आपने समस्त सांसारिक सुख वैभव को तिलांजलि देकर स्वनाम-धन्य सुप्रसिद्ध जैनाचार्य श्रीमद्विजयानंदसूरीश्वरजी (अपर नाम श्रीवात्मारामजी) महाराज से भागवती दीक्षा के कठोर व्रत अंगीकार किए। तत्पश्चात् अनवरत सड़सठ वर्ष के सुदीर्घ कालपर्यंत आपने तथा आपके आदेशानुसार आपके विशाल शिष्य-समुदाय ने लोकहित के हेतु जो अनेकानेक सत्कार्य किए, यदि उनका वर्णन किया आय तो एक सुविशाल ग्रन्थ का निर्माण करना पड़े। संक्षेप में आप अनेक राष्ट्रीय, धार्मिक, सामाजिक, शैक्षणिक एवं नाना-विध लोक-मंगलकारी संस्थाओं के प्राण, अनेक जिन-मंदिरों एवं मूर्तियों के प्रतिष्ठापक, अगणित देवालयों एवं तीर्थों के जीर्णोद्धारक एवं व्यवस्थापक, अनेक मनीषियों, विद्वानों, लेखकों एवं कलाकारों के आश्रय-दाता, सहस्रों मनुष्यों को कुमार्ग से दूर हटा कर सन्मार्ग पर चलानेवाले, लाखों मनुष्यों को सद्धर्मामृत का पान करानेवाले, अत्यंत मधुरभाषी परंतु स्पष्टवक्ता, जैन एवं जैनेतर दर्शनों के मार्मिक विद्वान्, निष्पक्ष समालोचक, अनेक भारतीय भाषाओं के ज्ञाता, संस्कृत एवं प्राकृत तथा अन्यान्य प्राचीन भारतीय भाषाओं के प्रकांड पंडित, जैन-शास्त्रों में पारंगत, सुललित छंद एवं कोमल कांतपदावलियुक्त श्रुति-मधुर तथा मनोहर काव्य-रचना करने में सिद्ध-हस्त, उत्तम संगीतज्ञ, अपनी पीयूषवर्षिणी वाणीद्वारा श्रोतागण को मन्त्र-मुग्ध करने में निष्णात, अनेक अभिमानी पादी-गख का गर्व खर्व करने वाले विद्वान्, अनेक नेताओं, सम्मान्य पुरुषों तथा राजा-महाराजाओं द्वारा पूजित, जन-साधारण द्वारा पूर्णरूपेण समाइत, गम्भीर विचारक, प्रखर द्रष्टा, सौम्याकृति, नवनीतोपमकोमलहृदय होते हुए भी कर्त्तव्य-पालन में वज्र-सम कठोर, पर-दुःख-भंजन में लवलीन, अहर्निश परोपकार-परायण, अहिंसा एवं सत्य के अनन्य पुजारी, शांति के देवदूत, श्रेष्ठ समाजसुधारक एवं लोक-सेवक, उग्र तपस्वी, महान् योगी, श्रेष्ठ प्राचार्य, अत्यंत तेजस्वी एवं प्रभावशाली, उच्च कोटि के शिक्षा शास्त्री, परम देश-भक्त एवं राष्ट्र-कर्मी, अगणित जीवों के जीवन-दाता, घोर परिषहों एवं उपसर्गों में भी अविचलित धैर्य धारण करनेवाले, अत्यंत मेधावी एवं मनस्वी, पृथ्वी के समान सहन-शील एवं सागर के समान गंभीर, क्षमा-श्रमण, जिन-शासनोद्धारक, नाना-विद्या-निधान, सकल सद्गुण-समलंकृत महापुरुष थे। आपने अपने जीवन काल में जितना महान कार्य किया, उतना अनेक संस्थाएं मिलकर भी कठिनता से कर पातीं। आपका जीवन अत्यंत आदर्श, सरल एवं नियमित था। आप अपने बहुमूल्य समय का एक क्षण भी व्यर्थ नहीं गंवाते थे और सदैव लोक-हित-साधन तथा आत्मोन्नति के कार्यों में व्यस्त रहते थे। श्राप धर्म, समाज एवं राष्ट्र के हितके लिए अपना जीवन बलिदान करने में भी किंचिन्मात्र संकोच नहीं करते थे। अापकी विचार-सरणि अत्यंत परिष्कृत एवं परिमार्जित तथा तात्त्विक दृष्टि अत्यंत प्रखर थी, जिससे आप कठिन से कठिन समस्याओं का समाधान अत्यंत सरलतापूर्वक कर लेते थे। आपके प्रभावशाली म्मक्तित्व, सुमधुर वक्तृत्व, सौजन्यतापूर्ण एवं सौहार्द-पूर्ण व्यवहार, निष्कलंक जीवन, अगाध पांडित्य एवं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012060
Book TitleVijay Vvallabhsuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Vidyalaya Mumbai
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1956
Total Pages756
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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