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आचार्य विजयवल्लसूरि स्मारक ग्रंथ सहानुभूति रखनी चाहिए ताकि हमारी तरफ प्रजा के हृदय में प्रेम बढ़ता जाये। इस प्रकार की प्रवृत्ति से हम केवल अपने समाज की ही प्रतिष्ठा बढ़ा सकेंगे, यही बात नहीं, परन्तु जैन शासन की सच्ची मार्गप्रभावना भी कर सकेंगे। प्रजा में जैनधर्म के अादर्श सिद्धान्तों की तरफ स्वाभाविक आकर्षण पैदा होगा और उनका अनुसरण करने की उनकी वृत्ति बढ़ती जायगी। इस लिये सेवा ही समाजोन्नति का प्रथम उपाय है।
स्वावलम्बन
चाहे व्यक्ति हो, समाज हो, या देश हो, अपनी उन्नति की साधना में स्वावलम्बन नितान्त आवश्यक है। जब तक हम स्वाश्रयी न बनेंगे तब तक जीवन अाकुल व्याकुल बना रहेगा और बिना निराकुलता के जीवन का विकास हो नहीं सकता। इसलिये जहाँ तक बने वहाँ तक आवश्यकताएँ कम करते जाना चाहिये और जितनी आवश्यकताएँ अनिवार्य हैं उनकी पूर्ति अपने श्राप करने का प्रयत्न करना चाहिए। समाज के लिये भी यही बात है कि अपनी उन्नति के लिये कार्यबल, बुद्धिबल, धनबल, विद्याबल या राजतंत्रबल आदि जितनी भी शक्तियों की जरूरत है, उनकी पूर्ति के लिये समाज में हरप्रकार के मनुष्यों को तैयार करना चाहिए। हमें हमारी देह, कुटुम्ब, धन, धर्मस्थान आदि के रक्षण के लिये दूसरों के भरोसे रहना अथवा अन्य की ग़रज़ करना या मुंह ताकना पड़े, इससे ज्यादा क्या भूल हो सकती है। आज हमारे समाज को विकट परिस्थिति का कटु अनुभव करना पड़ता है, उसका कारण यही है कि हम स्वावलम्बी नहीं हैं। अर्थात् सिवाय व्यापार के और किसी क्षेत्र में हम लोग जैसी चाहिए वैसी प्रगति साधते नहीं, इस लिये इस स्वराज्य प्राप्ति के सुन्दर समय में भी हमारी आवाज कोई सुनता नहीं। उलटे हमारे सामाजिक व धार्मिक अधिकारों पर कई स्थानों में बलात्कार हो रहा है, परन्तु किसको कहें। हम यदि जीवन के उपयोगी सब ही क्षेत्रों में आगे बढ़े हुए होते तो अपनी अहिंसा प्रधान जैन संस्कृति को सर्वत्र व्यापक बना सकते और शांति का संदेश सारे विश्व को सुना सकते। शास्त्र में 'श्रावकों को अदीन मन से रहना चाहिये' ऐसा लिखा हैं। इस अमूल्य सिद्धान्त को तब ही चरितार्थ कर सकते हैं जब कि हम अपने जीवन को स्वावलम्बी बनावें। इसलिये स्वावलम्बन को समाजोन्नति का अमूल्य उपाय मानना कोई अत्युक्ति नहीं है।
संगठन
बच्चा भी जानता है कि एक एक धागे को मिला कर जब रस्सा बनाया जाता है तब हाथी भी उसके बंधन के सामने अपने बल का उपयोग नहीं कर सकता। आज हमारे समाज में न धन की कमी है न उदारता की, परन्तु आपस में संगठन न होने से लाखों रुपये खर्च करते हुए भी हम अपने धर्म का प्रभाव फैला नहीं सकते। हमारी वर्तमान परिस्थिति पर एक सुन्दर दृष्टान्त याद आता है । कुछ जैन यात्री प्रवास में निकले हुए थे। रास्ते में सूर्यास्त के समय सब को चउविहार करना था और पानी के लिये कोई उपाय था नहीं। आखिर वे एक सूखी नदी पर पहुंचे । तब एक अनुभवी ने कहा कि सब एक छोटी कुंइयां खोदो तो अभी पानी निकल जायगा। परन्तु आपस में संगठन था नहीं, इसलिये सब के सब अलग कुंइयां खोदने बैठ गये। किसीने दो दाथ किसीने तीन और किसीने चार हाथ खोदा और पानी किसी से भी निकला नहीं और रात पड़ गई। सबको प्यासे ही रहना पड़ा
अगर सबने मिलकर एक कुंइयां खोदी होती तो सबकी प्यास बुझती। ई० स० १८६३ के चिकागो (अमेरिका) की (Parliament of Religions) सर्वधर्मपरिषद में जैन धर्म के प्रतिनिधि श्रीमान् वीरचन्द राघवजी गांधी गये थे। हिन्दू धर्म के प्रतिनिधि स्वामी विवेकानंद गये थे। दोनों की प्रशंसा अमेरिका में खूब हुई और उनके व्याख्यानों का प्रभाव वहां की प्रजा पर पड़ा। परंतु हमारे समाज में संगठन न होने के
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