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________________ पंजाब केसरी का पंचामृत श्री ऋषभदासजी जैन किसी भी हरे भरे सुन्दर उद्यान या उपवन में हम प्रवेश करते हैं तो स्वाभाविक रूप से हमारी दृष्टि उसमें रहे हुए अनेक प्रकार के फले फूले, शीतल, छायादार वृक्षों के पुञ्ज तथा रंग बिरंगी, पुष्पों से शोभायमान लताओं और मनोरञ्जक वल्लियों की तरफ जाती है; परन्तु सूक्ष्मदृष्टि से अवलोकन किया जावे तो यही अनुभव होगा कि उस सारी सुन्दरता का आधार उस फलद्रूम भूमि के अन्तःस्थल में रहे हुए जल की पुष्कलता पर है। उसी तरह से दिव्य दृष्टि से देखा जाये तो यही अनुभव होता है कि हमारे लौकिक या लोकोत्तर जीवन की सकल सुखसमृद्धि एवं ऐश्वर्य का मूल केवल धर्म पर निर्भर है। इसी लिये शास्त्रकार महर्षियों का मन्तव्य है कि किसी भी जीव को धर्मप्राप्ति कराने जैसा संसार में कोई उपकार नहीं । कदाचित् चक्रवर्ती अपनी छः खण्ड की ऋद्धि सिद्धि दान में दे देवे, तो भी वह जीव को धर्माभिमुख करने वाले की तुलना नहीं कर सकता। वैसे तो मातापिता को अत्यंत उपकारी माना जाता हैपरन्तु धर्मदाता के उपकार के सामने उनका उपकार भी समुद्र में बिन्दुमात्र है। क्योंकि मातापिता जीव के केवल जन्मदाता हैं, परन्तु जन्म प्राप्त होने से उसे जीवन के संग्राम में उतरना पड़ता है और उसे संग्राम में विजय प्राप्ति की विद्या का पुष्टावलम्बन न मिले तो जीवन की हार मानकर चिन्तामणि रत्न समान अमूल्य मानव जन्म निरर्थक गंवाना पड़ता है और तत्फलस्वरूप संसार के कारागृह में अनंत काल तक उसे भटकते हुए अनेक दुःख सहन करने पड़ते हैं । जीवन में विजय प्राप्त करने की विद्या को ही धर्म कहते हैं जिसके द्वारा हम सकल दुःख से मुक्त हो सकते हैं। इसलिये आर्यावर्त जैसी श्राध्यात्मिक भूमि श्राज भी " सा विद्या या विमुक्तये" की ध्वनि से गूंज रही है । जैसे वृक्ष के जड़, तना और शाखा आदि प्रधान अङ्ग हैं वैसे ही धर्म के सम्यग्दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यक् चारित्र आदि अङ्ग हैं । जैसे जड़ बिना वृक्ष नहीं टिक सकता उसी तरह से सम्यग् दर्शन बिना धर्म नहीं टिक सकता। गुजराती में कहावत है कि " कडा विनाना मींडानी किंमत नथी " उसी तरह सम्यग्दर्शन बिना ज्ञान और चारित्र का मूल्य नहीं। पूज्यवर उपाध्यायजी महाराज श्रीयशोविजयजी श्री नवपद पूजा ढाल में फरमाते हैं--- जेविण नाग प्रमाण न होवे चरित्र तरू न विफलियो, सुख निर्वाण न जे विण लहिये, समकितदर्शन बलियो । • शास्त्र में सम्यग्दर्शन को धर्मवृक्ष का मूल, मोक्ष नगर का द्वार, भवसमुद्र का पुल और सकल गुण का भाजन आदि उपमाएँ दी हैं। पूज्यवर उपाध्यायजी महाराज ने यहां तक लिखा है कि Jain Education International " समकित दायक गुरुतणो पच्चुवयार न थाय, भव कोड़ा कोडे करी करता सर्व उपाय 33 अर्थात् करोडों जन्म तक सर्व उपाय करने से भी समकित दाता के उपकार का बदला देना दुष्कर है। यह मूल्य श्राप्तवचन बार बार मेरी स्मृति में आता रहता था । इसलिये जिस महाभाग्य ने लोक वल्लभ बनने में अपने पवित्र जीवन का सदुपयोग करके वल्लभ नाम सार्थक किया है, ऐसे स्वनामधन्य पूज्यवर आचार्य भगवान् की सेवा में कुछ कुछ समयांतर से उपस्थित होता रहता था, क्योंकि मुझे और मेरे For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012060
Book TitleVijay Vvallabhsuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Vidyalaya Mumbai
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1956
Total Pages756
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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